कहीं आप अपने दुःखों के कारण शहीद तो नहीं हैं? Osho

आप अपने दुखों की बात करते हैं। थोड़ा सोचना, उन दुखों के कारण कहीं आप शहीद तो नहीं हैं? थोड़ा सोचना, उन दुखों में कहीं आपका कोई सुख तो नहीं छुपा है? जीवन एक वृक्ष के समान है इस वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी, जो स्वाद लेता है, फलों को चखता है। और दूसरा पक्षी जो सिर्फ देखता है, जो न फलों को चखता है, न स्वाद लेता है, जो किसी भी समय नीचे नहीं उतरता।
जो पक्षी भोगी है यानी स्वाद लेता है वह नीचे की शाख पर बैठा है जबकि दूसरा वाला जो मात्र साक्षी पक्षी है, वह ऊपर की शाख पर बैठा है। भोग का अंतिम परिणाम व्यथा है। सुख तो मिलते हैं, लेकिन सुख सदा दुख मिश्रित मिलते हैं। और हर सुख अपने साथ अपने ढंग का दुख लाता है।
सुख तो ठहरता है क्षण भर, दुख पीछे लंबी धूमिल रेखा की भांति छूट जाता है। आदमी बड़ा जालसाज़ है। वह अपने दुख को भी लीप-पोत लेता है, अपने दुख को भी साज-संवार लेता है, वह अपने दुख को भी श्रृंगार बना लेता है। और तब मुश्किल हो जाती है, क्योंकि वह श्रृंगार को कैसे फेंके? दुख तुम कभी का फेंक देते, अगर श्रृंगार तुमने न बनाया होता।
कारागृह से तुम कभी के बाहर आ गए होते, लेकिन कारागृह को तुमने निवास समझा है। जंजीरें तुम्हारी, तुम्हारे सिवाय कोई नहीं पकड़े हुए है, लेकिन जंजीरों को तुम आभूषण माने हुए हो। इसलिए ऊपर का पक्षी बैठा प्रतीक्षा करता है और तुम नीचे बड़ा दुख भोग रहे हो। ऊपर का पक्षी हंसता होगा।
वह तुम्हारे ही भीतर बैठा हंस रहा है, तुम जानते हो भली-भांति। कभी-कभी तुम्हें उसकी झलक भी मिली है। क्योंकि वही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है, तुम कितना ही उसे भूलो, कैसे भूल पाओगे? कभी न कभी उसकी याद आ ही जाएगी। कभी न कभी तुम्हारी शांति के क्षण में उसका स्वर तुम्हें सुनाई पड़ जाएगा।
कभी न कभी खाली बैठे वह तुम्हें भर देगा। लेकिन तुम उससे बच रहे हो। कर्ता होने में तुम्हें इतना मज़ा आ रहा है कि तुम साक्षी होने से बच रहे हो। मजे के कारण तुम काफी दुख उठा रहे हो, दुखों का प्रचार भी कर रहे हो। लेकिन शायद दुख अभी उस वाष्पीकरण के बिंदु तक नहीं पहुंचे हैं, उस जगह दुख नहीं आ गए हैं, जहां तुम्हारी गर्दन बिलकुल घुट जाए और तुम सिर उठाकर ऊपर देखो।
एक बार भी तुम सिर उठाकर ऊपर देख लो, तो तुम हैरान रह जाओगे कि अब तक तुमने जन्मों जन्मों में जो भोगा, वह एक लंबे दुखद स्वप्न से ज्यादा नहीं था। तुम्हारा वास्तविक स्वरूप सदा उसके बाहर रहा है।

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