अहंकार सब से बड़ी दुविधा है। और इसे ठीक से समझ लेना, अन्यथा तुम अनंत-अनंत काल तक पुराने अहंकार के साथ लड़ते हुए नया अहंकार निर्मित करते चले जाओगे। अहंकार है क्या? अहंकार का वास्तविक स्वरूप क्या है? अहंकार स्वयं को ही मालिक मान लेता है। और वह स्वयं में ही भेद खड़े कर लेता है-मालिक और सेवक, श्रेष्ठ और निम्न, पापी और पुण्यात्मा, अच्छे और बुरे के भेद खड़े कर लेता है। सच तो यह है, अहंकार ही परमात्मा और शैतान के बीच का भेद खड़ा कर लेता है। और हम सुंदर, श्रेष्ठ और अच्छे के साथ तो तदात्म्य बनाते चले जाते हैं; और निम्न की निंदा किए चले जाते हैं।
अगर भीतर यह विभाजन विद्यमान है, तो जो कुछ भी हम करेंगे उसमें अहंकार मौजूद रहेगा। हम उस विभाजन को गिरा भी सकते हैं, लेकिन उसको गिराने के माध्यम से भी हम अहंकार निर्मित कर ले सकते हैं। फिर इसी तरह से धीरे-धीरे महा-अहंकार तुम्हारे लिए मुसीबतें खड़ी करने लगेगा, क्योंकि सभी तरह के भेद और विभाजन अंततः व्यक्ति को दुख में ले जाते हैं। विभाजन का न होना ही आनंददायी है; और विभाजन का होना ही दुख है। तब फिर वह महा-अहंकार, सुपर ईगो नयी समस्याएं, नयी चिंताएं खड़ी करेगा। और फिर तुम अपने महा-अहंकार को गिराओगे और फिर महा से महा अहंकार निर्मित कर लोगे-और अनंत-अनंत काल तक तुम यही किए चले जा सकते हो।
और इससे तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं होगा। तुम उस समस्या को बस दूसरी तरफ सरका दोगे। तब तुम समस्या को पीछे धकेलकर समस्या से बचने की कोशिश करते हो। मैंने एक ऐसे कैथोलिक के बारे में सुना है जो वर्जिन मेरी, परमात्मा और कैथोलिक धर्म का कट्टर अनुयायी था। फिर एक दिन इन सबसे तंग आकर उसने यह सब छोड़ दिया वह नास्तिक हो गया। और नास्तिक होकर उसने कहना प्रारंभ कर दिया, ‘कहीं कोई परमात्मा नहीं है, और वर्जिन मेरी उसकी मां है।’
अब यह तो वही पुराना ढंग है, और इस ढंग से कहना तो और भी बेतुका और बेढंगा हो गया। मैंने एक यहूदी के बारे में सुना है, जो बहुत ही सीधा-सादा और सरल आदमी था। वह यहूदी एक छोटे से शहर में दर्जी का काम करता था। एक दिन वह दर्जी चर्च नहीं गया। उस दिन यहूदियों का कोई धार्मिक दिवस था। वैसे वह हमेशा चर्च जाया करता था। धीरे-धीरे पूरे शहर में यह अफवाह फैल गयी कि वह दर्जी नास्तिक हो गया है। इस बात से पूरा शहर चकित था और परेशान भी था। उस छोटे से शहर के लिए यह एक बड़ी घटना थी कि दर्जी नास्तिक हो गया है।
उस शहर में ऐसा कभी नहीं हुआ था; कोई कभी नास्तिक नहीं हुआ था। तो शहर के सभी लोग मिलकर दर्जी की दुकान पर गए। उन्होंने दर्जी से पूछा, ‘कल धार्मिक दिन था, पूरा शहर चर्च में इकट्ठा हुआ था, कल तुम क्यों नहीं आए?’ दर्जी ने कोई जवाब न दिया। वह मौन ही रहा। दूसरे दिन फिर वे उस दर्जी के पास गए। क्योंकि शहर में किसी भी आदमी का कामकाज में मन नहीं लग रहा था। पूरा शहर दर्जी के बारे में चिंतित था-कि वह नास्तिक क्यों हो गया है? फिर उन्होंने कुछ लोगों का एक प्रतिनिधि-मंडल बनाया और शहर का एक मोची, जो थोड़ा लड़ने-झगड़ने में तेज था, उसे नेता बना दिया। वे फिर उस दर्जी की दुकान पर गए। मोची ने आगे बढ़कर दर्जी के पास जाकर पूछा, ‘क्या तुम नास्तिक हो गए हो?’ दर्जी ने बड़े ही इत्मीनान से कहा, ‘हां, मैं नास्तिक हो गया हूं।’
उन लोगों को तो जैसे अपने कानों पर भरोसा ही नहीं आया। उन्हें ऐसी आशा न थी कि वह ऐसा जवाब देगा। उन्होंने दर्जी से पूछा, ‘तो फिर कल तुम क्यों चुप रहे?’ वह बोला, ‘क्या? आखिर तुम लोग कहना क्या चाहते हो! क्या मैं सबथ के दिन यह कहूं कि मैं नास्तिक हो गया हूं?’ अगर तुम नास्तिक भी हो जाओगे, तो भी तुम्हारा पुराना ढर्रा-ढांचा उसी तरह चलता रहता है।