स्वभावतः हम जीवन में उसी चीज के प्रति जागृत होते हैं जिसे देखते और महसूस करते हैं जो हमें दिखता है। दरख्त को देखते हैं, आदमी को देखते हैं, आसमान को देखते हैं, चांद-तारों को देखते हैं क्योंकि यह हमारी चेतना में मौजूद होते हैं। कोई विषय होता है, कोई वस्तु होती है। फिर भी प्रश्न उठना स्वभाविक है कि जागरण किसके प्रति?
एक बात समझ लें। जब तक किसी के प्रति आप जागे हैं, तब तक आप संसार में हैं। जब तक कोई वस्तु मौजूद है चेतना में है तब तक आप अपने से बाहर हैं। जिस क्षण चेतना अकेली रह गई और वहां कोई वस्तु, कोई विषय, कोई नाम, कोई शब्द, कोई रूप न रहा, कोई भी न रहा, चेतना अकेली रह गई-कंटेंटलेस-विषय-वस्तु से रहित और शून्य, अकेली है उस क्षण आप अपने में है। निश्चित ही, अगर हम एक दीया जलाएं, तो उस दीये के प्रकाश में आसपास के दरख्त दिखाई पडेंगे, लेकिन क्या दरख्तों के दिखाई पड़ने के अतिरिक्त दीये का अपना होना नहीं हैं?
अगर दीये का अपना होना न हो, तो दरख्त भी कैसे प्रकाशित होंगे? प्रकाश अलग है उन दरख्तों से, जो प्रकाशित हो रहे हैं। मैं आपको देख रहा हूं, आपसे अलग हूं। मेरे भीतर अपनी चेतना है। अगर इस चेतना के शुद्ध स्वरूप को मुझे अनुभव करना है, तो मुझे अपने को सारे विषयों से अलग शांत और निस्पंद कर लेना होगा। उस घड़ी मैं स्वयं को जानूंगा। जब तक कोई और मौजूद है, तब तक मैं उसे जानूंगा।
विज्ञान किसी और को जानता है, धर्म स्वयं को। विज्ञान तथ्यों को खोज रहा है वस्तु को तलाश रहा है, पदार्थ की, पर की, पराए की, बाहर की। धर्म उसकी खोज है, जो स्व है, स्वयं है, भीतर है-वह जो तथ्य है, वह जो आत्मिकता है, वह जो आंतरिकता है। और दो ही दिशाएं हैं मुनष्य के सामने। भूगोल तो कहता है, दस दिशाएं हैं, लेकिन मुनष्य के सामने वस्तुतः दो दिशाएं हैं।
दस दिशाओं की बात तो झूठी है। एक दिशा है बाहर की तरफ, एक दिशा है भीतर की तरफ। और कोई दिशा नहीं है। एक खोज है बाहर की तरफ की दुनिया में, एक खोज है भीतर की दुनिया में। बाहर की दुनिया में हम सारे लोग खोजते हैं और जीवन उलझता से उलझता चला जाता है। हम तो समाप्त हो जाते हैं, खोज वहीं की वहीं रह जाती है। क्योंकि एक बुनियादी बात हम भूल गए कि जिस आदमी ने स्वयं को नहीं खोजा है, उसकी कोई भी खोज सार्थक नहीं हो सकती, क्योंकि जिसको स्वयं का ही कोई बोध नहीं है, उसे और ज्ञान कैसे हो सकता है?
जो अपने भीतर अंधेरे से भरा है, सारे जगत् में भी रोशनी हो, उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जहां जाएगा, अपने अंधेरे को साथ ले जाएगा। अंधेरा उसके भीतर है। तो वह जहां भी जाएगा, अंधेरा उसके रास्तों को घेर लेगा। इसीलिए तो विज्ञान इतनी खोज करता है, लेकिन परिणाम अच्छे नहीं आते।
क्योंकि आदमी के भीतर अंधकार है और बाहर विज्ञान बड़ी ताकतें इकट्ठी कर लेता है। वह अज्ञानी आदमी के हाथ में पड़ जाती है। उनसे फल शुभ नहीं आता, अशुभ होता है। वह आदमी को मारने के उपाय निकलते हैं, उनसे हत्या करने के, हिंसा करने के तीव्र उपाय निकलते हैं। निकलेंगे ही, बाहर की कोई खोज सार्थक नहीं है, जब तक भीतर आलोकित न हो।