सवालः प्यारे ओशो, ध्यान, समझ, जागरूकता, प्रेम और संबोधि, और अब संबोधि से भी पार जाना आपकी शिक्षा के अभिन्न अंग मालूम होते हैं। और वे सजीव रूप से अंतर्संबंधित भी जान पड़ते हैं। क्या आप यह सब हमें कृपया एक बार फिर से समझाएंगे?
ओशोः यह इतना स्पष्ट और इतना सरल है कि इसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। इसे मात्र वर्णन करने की आवश्यकता है। ध्यान कुछ और नहीं बस मौन अवस्था में तुम्हारा मन है। जैसे कि कोई झील शांत हो, उसमें कोई लहर न हो…विचार लहरें हैं। ध्यान है विश्रांत मन-चीजों को बहुत जटिल मत बनाओ-मन का कुछ न करने की अवस्था में, बस विश्रामपूर्ण होना ध्यान है। जिस क्षण तुम मौन और विश्रांत होते हो, उन चीजों के लिए, जिन्हें तुम पहले कभी न समझे थे, एक बड़ी गहन अंतर्दृष्टि और समझ तुममें आती है।
कोई तुम्हें समझा नहीं रहा। बस तुम्हारी दृष्टि की निर्मलता ही चीजों को स्पष्ट कर देती है। गुलाब होता है, पर अब तुम इसके सौंदर्य को बहुआयामी ढंग में जानते हो। तुमने इसे कई बार देखा था-यह बस एक साधारण गुलाब था। पर आज यह साधारण नहीं रहा; आज यह असाधारण हो गया क्योंकि दृष्टि में एक स्पष्टता और निर्मलता है। तुम्हारी अंतर्दृष्टि पर से धूल हट गई है और गुलाब के पास एक आभामंडल है जिसके बारे में तुम पहले सजग न थे।
तुम्हारे चारों ओर, तुम्हारे भीतर, तुम्हारे बाहर की हर चीज स्फटिक सदृश्य स्पष्ट हो जाती है। और जैसे-जैसे समझ अपने आत्यंतिक बिंदु पर पहुंचती है, प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। स्पष्टता, अपनी चरम सीमा पर, प्रकाश का एक विस्फोट हो जाती है जिसे हम ‘संबोधि’ कह कर पुकारते हैं। यह बस उस स्पष्टता की प्रखरता ही है कि अंधकार विलीन हो जाता है। यह इसलिए है कि तुम इतना स्पष्ट देख सकते हो कि वहां अंधकार होता ही नहीं।
तुम भलीभांति जानते हो कि ऐसे पशु भी हैं जो अंधेरे में भी देख सकते हैं; उनकी आंखें अधिक स्वच्छ, अधिक पैनी होती हैं। तुम्हारी अंतर्दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि सब अंधकार विलीन हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तुम्हारे ऊपर प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। इसे संबोधि कहो, मुक्ति कहो, अनुभूति कहो। पर फिर भी तुम तो इसके बाहर ही होते हो: यह तुम्हारा अनुभव है और तुम अनुभव करने वाले हो।
यह एक वस्तुगत अनुभव है; तुम तो एक आत्मचेतना हो। तुम जानते हो कि यह सब घट रहा है; इसलिए इसका भी अतिक्रमण करके संबोधि के भी पार हो जाना है। उसे चोटी पर, उसे एवरेस्ट पर…केवल साक्षीभाव, बस शुद्ध साक्षीत्व; किसी चीज के प्रति सजग नहीं, किसी चीज के प्रति साक्षी नहीं-बस एक शुद्ध दर्पण, किसी चीज को प्रतिबिंबित करता हुआ नहीं। ये सब सजीव रूप से संबंधित हैं। एक-एक कदम चलो; दूसरा कदम फिर स्वतः ही आएगा।