जीवन का आनंद मृत्यु के साथ सामने होता हैः ओशो

चीन में च्वांगत्से नाम का एक फकीर था। उसकी स्त्री मर गई। राजा च्वांगत्से का आदर करता था अतः च्वांगत्से के पास संवेदना के दो शब्द कहने पहुंचा। जब राजा वहां पहुंचा तो देखकर हैरान हुआ। च्वांगत्से एक झाड़ के नीचे बैठकर खंजड़ी बजा रहा था। सुबह उसकी पत्नी मरी थी। राजा थोड़ा हैरान हुआ।
उसने च्वांगत्से से कहा, यह तो बर्दाशत के बाहर है। तुम दुःख न मनाते, इतना ही काफी था। लेकिन तुम खंजड़ी बजाओ और गीत गाओ! यह तो कुछ समझ में नहीं आता। च्वांगत्से बोला, जिसको विदा दी है, उसने इस विदा से कुछ पाया है, खोया नहीं तो खुशी मनाऊं कि रोऊं? और फिर जिसके साथ इतने दिन रहा हूं, उसे आंसुओं के साथ विदा करना क्या शुभ होगा?
उचित है कि मेरे गीत की छाया में ही उसकी विदाई हो। उसके आगे के मंगल-पथ पर यही उचित होगा कि मेरे गीत उसके साथ जाएं, बजाय मेरे आंसुओं के और मेरे रोने के। और च्वांगत्से ने कहा, स्मरण रखो, जब मैं मरूं तो जरूर तुम गीत गाना, क्योंकि मैं तो प्रतीक्ष कर रहा हूं उस क्षण की, जब मैं विदा होऊंगा। कब मेरी तैयारी पूरी होगी और कब मैं विदा होऊंगा? क्योंकि स्कूल से विदाई का वक्त दुःख का थोड़े ही होता है! प्रशिक्षण था, पूरा हुआ। विदाई आ गई।
जीवन तो एक प्रशिक्षण है, एक बहुत गहरे अर्थों में, बहुत गहरी अनुभूतियों का। जब परिपक्व होकर कोई विदा होता है, तब प्रसन्नता से विदा होता है। जब असफल होकर कोई विदा होता है, तो दुःख से विदा होता है। वह दुःख असफलता का है, विदाई का नहीं। वह जीवन की व्यर्थता का है, अर्थहीनता का है। अगर कहीं कोई सार्थकता पा ली हो, तो मृत्यु तो सुख है, मूल्य तो आनंद है।
मृत्यु से ज्यादा बड़ा सखा और मित्र कौन है? लेकिन चूंकि सब गलत है, और सब गलत इकट्ठा होता जाता है, एकुमेलटेड होता चला जाता है, तो मौत एकदम गलत दिखाई पड़ती है। जीवन-भर का गलत मौत के सामने ही आता है। अगर जीवन सुंदर रहा हो, शांत रहा हो और आनंद से भरा हो तो, मृत्यु एक घनी अनुभूति होगी। सारे जीवन का आनंद मृत्यु के साथ हमारे सामने खडा़ हो जाता है। हम गलत करते हैं। गलत यह करते हैं कि हम थोपते हैं, ऊपर से थोपना परिवर्तन नहीं है।
फिर क्या हो? तो मेरा पहला निवेदन तो यह है कि क्रोध को बदलने की चिंता न करें, घृणा को बदलने की चिंता न करें। क्योंकि बदलने की चिंता से ही थोपने का उपाय सामने आ जाता है। फिर करें क्या? इतना ही जानें कि, जीवन जब बहिर्गामी होता है, चेतना जब बाहर की तरफ बहती है, तो उसके लक्षण हैं, क्रोध, घृणा, हिंसा। ये बहिर्गामी चेतना के अनिवार्य लक्षण हैं। ये चेतना के लक्षण हैं, ये चेतना को बाहर बहवाने के कारण नहीं। चेतना को बाहर ले जाने के कारण नहीं हैं। चेतना चूंकि बाहर है, इसलिए ये लक्षण प्रकट होते हैं।
अगर चेतना भीतर लौटने लगे तो दूसरे लक्षण प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। घृणा की जगह प्रेम प्रकट होने लगता है, क्रूरता की जगह करुणा प्रकट होने लगती है। वह भीतर जाती चेतना के लक्षण हैं। बहिर्गामी चेतना के लक्षण हैं ये सब, अंतर्गामी चेतना के लक्षण दूसरे हैं। वे केवल खबरें हैं कि, अब चेतना भीतर जाने लगी है। इसलिए इसकी बिल्कुल फिक्र छोड़ दें कि क्रोध मिटे। इससे तो केवल इतना संकेत लें कि मेरी चेतना बाहर बहती है इसलिए क्रोध है। इसलिए मैं चेतना को भीतर लाऊं। क्रोध की फिक्र छोड़ दें। क्रोध तो लक्षण है।

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