ओशो की देशना Osho

माया बड़ी बलशाली है. ऐसा बल की सत्य की आवाज़ को दबा दे, विकृत कर दे. थोडा सुक्ष्म अंतर है सत्य में और सत्य की आवाज़ में. सत्य तो निरंतर है, अनंत है, कालातीत है. पर आवाज़, यह तो दुनिया है, माया है. सत्य को नहीं दबाया जा सकता, पर सत्य की आवाज़ को कभी भी दबाया जा सकता है, विकृत किया जा सकता है, स्वार्थों के सिद्धि का माध्यम बनाया जा सकता है.
इतिहास में बहुतेरे लोगों को सत्य का ज्ञान हुआ, आत्म साक्षात्कार हुआ. ऐसी करुणा जगी की बिन बोले रहा न गया. तुलसीदास कहते हैं- “सब जानत प्रभु प्रभुता सोई, तदपि कहे बिनु रहा न कोई”. प्रभु को, उनकी प्रभुता को कौन नहीं जनता? सभी लोग प्रभु और उनकी प्रभुता के बारे में कहते रहते हैं. पर जिसने वास्तव में जान लिया, उसके शब्दों में सत्य की वो झलक होती है जिससे आँखे चुंधिया जाये, आदमी की सोचने समझाने की शक्ति खत्म हो जाये.
यही कारण है कि उन शब्दों की सर्वाधिक दुर्गति होती है जिसमें सत्य की झलक हो, जिसमें अकारण का प्रेम हो. वैदिक ऋषियों के शब्दों का उपयोग हुआ वर्ग आधारित विखंडित समाज बनाने में. बुद्ध के करुणामय शब्दों के आधार पर युद्ध हुए. मोहम्मद के शब्दों का प्रयोग जिहाद के लिए हुआ, जीसस के शब्दों पर क्रूसेड हुए. ऐसे प्रेममय शब्द, ऐसे करुणामय वचन- जीसस के, मोहम्मद के, वेदों के और बुद्ध के- और उनका ये प्रयोग!
शब्द ऐसे ही होते हैं. उनका अर्थ तुम्हारे लिए वही है जो तुम हो. तुमने शब्दों के पीछे के मर्म को न जाना तो तुम ओशो के तोताराम हो. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की तुमने वेदों को रट लिया या ओशो के शब्दों को रट लिया. रटने वाला तो तोता ही है. शब्दों को विकृत करने की प्रक्रिया ही रटने से शुरू होती है. ओशो कहते हैं- “मैं तो आँखों देखी कहता हूँ”. अगर तुम आखों देखी कहते हो तब तो ओशो तुम्हारे हैं, वरना तुम ओशो के तोते हो.
ओशो कहते हैं- होनी होए सो होए. एक बार एक बड़ी अश्लील किताब लिखी गयी ओशो पर. पूरी की पूरी झूठ. लेखक ने उस किताब को प्रकाशन से पूर्व ओशो के पास भेजा. ओशो ने आशीर्वाद दिया उस लेखक को और कहा की आपने बहुत मेहनत की है इतनी झूठी बातें इकठ्ठा करने के लिए. ओशो ने कहा कि आप इस किताब को प्रकाशित करें, मेरा विश्वास है यह किताब बहुत बिकेगी. ऐसे थे ओशो. संत की प्रशंसा करो या गाली दो, वह तो इन दोनों से परे है.
आज जब फेसबुक पर ओशो सन्यासियों को एक दुसरे को गाली देते देखता हूँ तो बड़ी निराशा होती है. लगता है इन सन्यासियों ने ओशो की बातें तो रट लीं, ओशो के ना हो पाए.

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