एक जेलखाना था और उस जेलखाने में एक अस्पताल था और उस अस्पताल में जेलखाने के कैदियों को, बीमार कैदियों को रखा जाता था। जंजीरें बंधी रहती थीं, अपनी-अपनी खाटों से। सौ खाटें थीं और जेलखाने की बड़ी दीवाल थी। दरवाजे के पास नंबर एक की खाट थी।
उस नंबर एक के खाट का जो मरीज था, सुबह उठ कर बाहर देखता था दरवाजे के और कहता था, अहा! कितना सुंदर सूरज निकला है। निन्यानबे मरीज जो अपनी खाटों में अपनी जंजीरों से बंधे थे, तड़फ कर रह जाते थे कि उनके पास दरवाजा नहीं है, नहीं तो वे भी सूरज को देख लेते।
रात होती और वह आदमी कहता कि आज तो पूरे चांद की रात है। चांद आकाश में उठ गया है। और वे निन्यानबे मरीज जो अपनी खाटों से बंधे थे, उनके प्राण तड़फड़ा कर रह जाते कि काश! वे भी नंबर एक की खाट पर होते। नंबर एक की खाट का मरीज बहुत आनंद ले रहा है।
कभी वह कहता है कि नर्गिस के फूल खिल गए हैं, कभी कहता, रातरानी खिल गई है, कभी कहता जुही खिल गई है, कभी कहता कि इस समय तो गुलमोहर, सुर्ख आकाश को ढंके हुए है। वे निन्यानबे मरीज उससे कहते कि तुम बड़े सौभाग्यशाली हो, लेकिन मन में कहते कि हे भगवान! यह आदमी कब मर जाए।
नंबर एक तो होना बहुत खतरनाक है। पीछे के सब लोग प्रार्थना करते हैं कि यह आदमी कब मर जाए। ऐसे कोई राष्ट्रपति हो जाता है तो सारे लोग शुभ संदेश भेजते हैं और अगर उनके मन में हम उतर सकें तो वे कहेंगे कि यह आदमी कब विदा हो जाए, कब इसे हम राजघाट पहुंचा दें।
यह जगह कब खाली हो, क्योंकि यह जगह खाली हो तो हम पहुंच सकें। वे एक नंबर के मरीज के मरने की प्रार्थनाएं करते थे। कई बार वह मरीज बीमार इतना पड़ जाता था कि होने लगता था कि अब प्रार्थना पूरी हुई, अब पूरी हुई। लेकिन प्रार्थनाएं इतनी आसानी से पूरी तो होती नहीं।
वह फिर ठीक हो जाता था, फिर फूलों की बातें करने लगता था। कभी कहता पक्षियों की कतार निकल रही है; कभी कुछ, कभी कहता कि बदलियों ने आकाश को घेर लिया है; बूंदें पड़ रही हैं, लेकिन एक दिन वह मरा।
निन्यानबे मरीजों में से सभी ने कोशिश की कि नंबर एक पर पहुंच जाएं। डाक्टरों को रिश्वत दी, जेलर को रिश्वत दी। आखिर एक सफल हो गया। कोई तो सफल हो ही जाएगा और एक आदमी नंबर एक की खाट पर पहुंच गया है। वहां जाकर उसने देखा कि गुलमोहर के फूल कहां हैं, चांदनी के फूल कहां हैं, सूरज कहां है, चांद कहां है, वहां कुछ भी न था। उस दरवाजे के बाहर जेल की और बड़ी परकोटे की दीवाल थी, और वहां से कुछ भी न दिखाई पड़ता था–न आकाश, न फूल, न चांद, न सूरज।
वह आदमी हैरान हो गया। लेकिन उसने सोचा कि अब मैं लौट कर पीछे क्या कहूं। अगर मैं कहूं, कुछ भी नहीं है, सिर्फ दीवाल है तो लोग मुझ पर हंसेंगे। हंसना वह चाहते हैं कि हम तो पहले ही जानते थे, वह कहेंगे। इसीलिए तो हमने कोशिश नहीं की।
कोशिश उन सबने भी की थी, लेकिन वे कहते हमने कोशिश ही नहीं की, हम पहले ही जानते थे। उस आदमी ने लौट कर, मुस्कुरा कर कहा कि आश्चर्य, जिंदगी व्यर्थ गई जो इस द्वार पर न आ पाए। कितने फूल खिले हैं! सूरज की किरणों का कितना अदभुत जाल है! खुला आकाश है और पक्षी उड़ रहे हैं और उनके गीत सुनाई पड़ रहे हैं! वहां सिर्फ पत्थरों की दीवाल थी, नंबर एक के आगे।
लेकिन उसने फिर फूलों की बात की, वह अपनी असफलता को भी स्वीकार नहीं करना चाहता था। ऐसा उस जेल के अस्पताल में रोज होता रहा है। फिर नंबर एक आदमी मर जाता है, दूसरा फिर पहुंच जाता है। वह भी वही कहता है जो पहले आदमी ने कहा था। और पीछे जो लोग हैं, वे सब उसी दौड़ से भर जाते हैं।
हम अपने बच्चों को भी उसी दौड़ से भर देते हैं जिससे हमारे बूढ़े भरे हुए हैं। महत्वाकांक्षा की, एंबीशन की दौड़ से भर देते हैं। और जिस आदमी को एक बार महत्वाकांक्षा का पागलपन चढ़ जाता है, उसका जीवन विषाक्त हो जाता है। उसके जीवन में फिर कभी शांति न होगी, फिर कभी आनंद न होगा और उसके जीवन में फिर कभी विश्राम न होगा। और शांति न हो, विश्राम न हो, आनंद न हो तो जीवन की वीणा को बजाने की फुरसत कहां है?
मैंने तो सुना है, एक आदमी जब मर गया, तब उसे पता चला कि मैं जिंदा था। क्योंकि जिंदगी की दौड़ में पता ही न चला, फुरसत न मिली जानने की कि मैं जिंदा हूं–भागता रहा, भागता रहा, भागता रहा। जब मर गया, तब उसे पता चला कि अरे! जिंदगी हाथ से गई।
बहुतों को जिंदगी मरने के बाद ही पता चलती है कि–थी। जब तक हम जिंदा हैं, तब तक हम दौड़ने में गवां देते हैं। मेरी दृष्टि में ठीक शिक्षा उसी दिन पैदा हो पाएगी जिस दिन शिक्षित व्यक्ति गैर-महत्वाकांक्षी होगा, नॉन-एंबीशस होगा; जिस दिन शिक्षित व्यक्ति पीछे अंतिम खड़े होने में भी राजी होगा।
अंतिम खड़े होने के लिए राजी होने का मतलब यह है कि अब दौड़ न रही। जिंदगी अब दौड़ न रही, जिंदगी अब जीना होगी। जिंदगी एक जीना है और जीना अभी होगा, कल नहीं।