आप किस तरह के मनुष्य हैं? इस कहानी में छिपा है जवाब Osho

एक नया मंदिर बन रहा था। एक यात्री उस मार्ग की ओर से जा रहा था। वह उस नव निर्मित मंदिर को देखने के लिए रुक गया। उस स्थान पर अनेक मजदूर और कारीगर काम कर रहे थे। न मालूम कितने पत्थर तोड़े जा रहे थे। एक पत्थर तोड़ने वाले मजदूर के पास वह यात्री रुका और उसने पूछा, ‘मेरे मित्र, तुम क्या कर रहे हो?’ उस पत्थर तोड़ते मजदूर ने क्रोध से अपने हथौड़े को रोका और कहा, ‘क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं।’ इतना कहकर वह फिर पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री आगे बढ़ा और उसने पत्थर तोड़ते हुए एक दूसरे मजदूर से भी पूछा, ‘क्या कर रहे हो?’ उस आदमी ने अत्यंत उदासी के साथ आंखें ऊपर उठाई और कहा, ‘कुछ नहीं कर रहा, रोजी-रोटी कमा रहा हूं।’ वह फिर पत्थर तोड़ने लगा।
वह यात्री और आगे बढ़ा और मंदिर की सीढि़यों के पास पत्थर तोड़ते तीसरे मजदूर से उसने पूछा, ‘मित्र, क्या कर रहे हो?’ वह आदमी एक गीत गुनगुना रहा था और पत्थर भी तोड़ रहा था। उसने आंखें ऊपर उठाई। उसकी आंखों में बड़ी खुशी थी। वह बड़े आनंद के भाव से बोला, ‘मैं ईश्वर का मंदिर बना रहा हूं।’ फिर वह गीत गुनगुनाते हुए पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री चकित हो गया। उसने स्वयं से कहा कि तीनों लोग पत्थर तोड़ रहे हैं। पहला आदमी क्रोध से जवाब देता है। दूसरा आदमी उदासी के साथ जवाब देता है। तीसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा है, लेकिन वह आनंद के साथ गीत गाते हुए कहता है कि मैं ईश्वर का मंदिर बना रहा हूं।
मनुष्य 3 तरह के होते हैं
इन तीनों मजदूरों की तरह मनुष्य भी तीन तरह के होते हैं, जो अपने-अपने जीवन के मंदिर के निर्माण में लगे हुए हैं। कोई निर्माण के समय क्रोध में भरा रहता है। कोई उदासी से भरा रहता है, लेकिन कोई आनंद से भर जाता है, क्योंकि वह परमात्मा का मंदिर बना रहा है। जीवन को हम जैसा देखते हैं, वैसी ही हमारी अनुभूति भी बन जाती है। वही हमारे जीवन का साक्षात्कार भी बन जाती है।
परमात्मा के निकट पहुंचने का द्वार है आनंद
आनंद से भरने की जो दृष्टि होती है, वही उत्तम है। हो सकता है कि पत्थर तोड़ते-तोड़ते उसकी ईश्वर से मुलाकात भी हो जाए। आनंद के अतिरिक्त परमात्मा के निकट पहुंचने का और कोई द्वार नहीं है। जो क्रोध और पीड़ा के साथ काम कर रहा है, उसके हाथ कुछ भी नहीं लग सकता है। जो उदास और दुखी हैं, वे अपने जीवन में उदासी और दुख को ही फैला हुआ देख लें, तो आश्चर्य नहीं है। हम वही अनुभव करते हैं, जो हम होते हैं। हम वही देख लेते हैं, जो हमारी दृष्टि होती है तथा जो हमारा अंतर्भाव होता है।
-ओशो

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