ओशो ने कुछ कीमती कुंजियां दी हैं। एक कुंजी है- ‘तैरो मत, बहो।’ क्या इसका मतलब यह होगा कि निष्क्रिय हो जाओ? आलसी व्यक्ति में तो गहन अंधेरा होता है, उसकी बुद्धि तेज नहीं होती। जीवन की गति के साथ बहने के लिए बहुत गहरी समझ चाहिए। पैनी आंख ही देख सकती है कि जीवन की धारा किस ओर बह रही है।
हम जीवन भर तैरते हैं, यानी संघर्ष करते हैं, बहते नहीं। कुछ चीजें हैं, जो तैरने से कभी नहीं मिल सकतीं। वे सिर्फ बहने से ही मिल सकती हैं। प्रेम, सत्य या आनंद कभी तैरने से नहीं मिल सकता, सिर्फ बहने से ही यह मिल सकता है। जो भी बहने के लिए राजी है, वह सागर तक निश्चय पहुंच जाएगा। नदी खुद ही ले जाती है उसे। जो बहने को राजी है, जीवन उसे खुद ही ले जाता है, आगे बढ़ाता है, इसके लिए उसे कहीं जाना नहीं पड़ता। जो तैरा, वह भटक जाएगा। तैरने वाला अधिक से अधिक इस किनारे से दूसरे किनारे पहुंच पाएगा, लेकिन सागर तक वह नहीं पहुंच सकता। सागर तक जिसको जाना है, उसे तैरने की जरूरत है ही नहीं, उसे नदी से लड़ने की कोई जरूरत नहीं। नदी तो खुद ही सागर की तरफ जा रही है।
एक अमेरिकी हीलर थे, मिल्टन ट्रेगर। उन्होंने बरसों की मेहनत के बाद एक थेरेपी खोजी, जिसे ट्रेगर अप्रोच कहते हैं। उनका भी यही नजरिया है कि चीजों को होने दो, लड़ो मत। ट्रेगर कहते हैं कि शरीर में या मन में बहुत से आघात या तनाव इकट्ठा होते रहते हैं। उन्हें विसर्जित करने के लिए किसी दवाई की जरूरत नहीं होती। बस शरीर को पूरी तरह रिलैक्स करने की आवश्यकता है। वह हल्के, मृदु थपेड़ों से लोगों का तनाव दूर करते थे। मन यदि रिलैक्स हो, तो तन भी स्वाभाविक रूप से स्वस्थ रहता है। आप जितना रिलैक्स रहेंगे, उतना जीवन से तालमेल रहेगा। जीवन संगीत का एक सुर बनेंगे आप। नदी तो बह रही है, आप भी बहें।
अमृत साधना