मैं हमेशा ऐसा अनुभव क्यों करता हूं, जैसे कि मेरा एक हिस्सा दूसरे हिस्से के विरुद्ध लड़ रहा है?

मैं हमेशा ऐसा अनुभव क्यों करता हूं, जैसे कि मेरा
एक हिस्सा दूसरे हिस्से के विरुद्ध लड़ रहा है?
मनुष्य का इतिहास एक अत्यंत दुखद घटना रहा है, और
इसके दुखद होने का कारण समझना बहुत कठिन नहीं
है। उसे खोजने के लिए तुम्हें ज्यादा दूर जाना न
पड़ेगा, वह प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद है।
मनुष्य के पूरे अतीत ने मनुष्य में एक विभाजन पैदा कर
दिया है, हर आदमी के भीतर निरंतर एक शीत युद्ध
चल रहा है। यदि तुम्हें बेचैनी का अनुभव होता है, तो
उसका कारण व्यक्तिगत नहीं है। तुम्हारी बीमारी
सामाजिक है। और जिस चालाकी से भरी तरकीब
का उपयोग किया गया है, वह है: तुम्हें दुश्मनों के दो
खेमों में बांटना-भौतिकवादी और अध्यात्मवादी,
जोरबा और बुद्ध।
वस्तुतः तुम बंटे हुए नहीं हो। वास्तविकता यह है कि
तुम अखंड हो – एक स्वर में, एक लय में आबद्ध। लेकिन
तुम्हारे मन में यह संस्कार गहरा बैठा है कि तुम एक
नहीं हो, अखंड नहीं हो, पूर्ण नहीं हो। तुम्हें अपने
शरीर के खिलाफ लड़ना होगा। यदि आध्यात्मिक
होना चाहते हो तो तुम्हें अपने शरीर को हर संभव
तरीके से जीतना पड़ेगा, उसे हराना पड़ेगा, उसे
सताना और नष्ट करना पड़ेगा।
पूरी दुनिया में यह धारणा स्वीकृत रही है। विभिन्न
धर्मों में, विभिन्न संस्कृतियों में उसके रंग-रूप भिन्न-
भिन्न हो सकते हैं, किंतु आधारभूत सिद्धांत वही है-
मनुष्य को विभाजित करो, उसमें संघर्ष पैदा करो,
जिससे एक हिस्सा श्रेष्ठ अनुभव करने लगे, पवित्र बन
जाए, पुण्यात्मा बन जाए, और दूसरे हिस्से की पापी
की तरह निंदा करना शुरू कर दे।
मगर कठिनाई यह है कि तुम एक हो, तुम्हें खंडित करने
का कोई उपाय नहीं है। हर विभाजन तुम में दुख पैदा
करने वाला है। विभाजन का अर्थ होगा कि
तुम्हारी आत्मा का आधा भाग, दूसरे आधे भाग से लड़
रहा है। और यदि तुम स्वयं के भीतर लड़ रहे हो, तो कैसे
विश्राम को उपलब्ध होओगे?
पूरी की पूरी मनुष्यता अब तक स्किजोफ्रेनिक ढंग
से, खंडित-मानसिकता में जीती रही है। प्रत्येक
व्यक्ति टुकड़ों में, खंडों में तोड़ दिया गया है। तुम्हारे
धर्म, तुम्हारे दर्शनशास्त्र, तुम्हारे सिद्धांत, घाव भरने
वाले नहीं, वरन घाव करने के साधन रहे हैं-वे अंतर्युद्ध
और संघर्ष के कारण रहे हैं। तुम खुद अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मारते रहे हो। तुम्हारा दायां हाथ, बाएं
हाथ को चोट पहुंचाता है, बायां हाथ, दाएं हाथ
को घायल करता है, और अंतत: तुम्हारे दोनों हाथ
लहूलुहान हो जाते हैं।
पश्चिम ने चार्वाक को चुना, जोरबा को चुना।
विक्षिप्तता से बचने का दूसरा रास्ता न था-एक
हिस्से को पूर्णतः नष्ट करना पड़ा । पश्चिम ने मनुष्य
के आंतरिक सत्य को, उसकी चेतना को अस्वीकार
कर दिया-आदमी केवल शरीर है, कहीं कोई आत्मा
नहीं है-खाओ, पीओ, और मौज करो, बस यही
एकमात्र धर्म है। यह मन की शांति पाने का एक
उपाय था, संघर्ष से बाहर आने का, एक निर्णय और
निष्कर्ष पर पहुंचने का-क्योंकि यह स्वीकृत हो गया
कि तुम एक हो-केवल पदार्थ, केवल शरीर।
ऊपर-ऊपर से देखो तो ऐसा लगता है कि पूरब और
पश्चिम अलग-अलग चीजें कर रहे हैं, किंतु गहराई से
समझो तो वे एक ही चीज कर रहे हैं। सचाई यह है कि
वे एक होने का बौद्धिक रूप से प्रयास कर रहे हैं।
क्योंकि “दो’ होने का मतलब है निरंतर बेचैनी में, सतत
संघर्ष में होना; इससे बेहतर है कि “दूसरे’ का ख्याल
ही भूल जाओ।
इसी संदर्भ में तुम्हें यह स्मरण दिलाना महत्वपूर्ण
होगा कि आधुनिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच
गया है कि पदार्थ का होना एक भ्रम है। पदार्थ का
अस्तित्व नहीं है, वह केवल दिखाई देता है। वे इस
निष्पत्ति पर एक बिलकुल भिन्न मार्ग से पहुंचे हैं-
पदार्थ का सूक्ष्म अन्वेषण करते हुए उन्होंने पाया कि
जैसे-जैसे पदार्थ में गहरे जाते हैं, वैसे-वैसे उसकी
भौतिकता; उसका पदार्थ-पन कम से कम होता
जाता है, और परमाणु के बाद एक ऐसा बिंदु आता है
जहां कोई पदार्थ नहीं बचता, सिर्फ इलेक्ट्रॉन रह
जाते हैं, जो विद्युत कण हैं, वे पदार्थ नहीं, सिर्फ
ऊर्जा तरंगें हैं।
पश्चिमी प्रतिभा को केवल पदार्थ के साथ काम
करने की छूट थी। पूरब में प्रतिभा के लिए पहली
चुनौती थी-अंतर्यात्रा। सिर्फ द्वितीय श्रेणी के
लोगों ने, मध्यम कोटि के लोगों ने बाहरी
सांसारिक चीजों के लिए श्रम किया। जो वास्तव
में बुद्धिमान थे, उन्होंने सदा ध्यान की दिशा में
गति की।
धीरे-धीरे दूरी बढ़ती गई। पश्चिम भौतिकवादी हो
गया-इसकी पूरी जिम्मेवारी ईसाई चर्च की है, और
पूर्वीय मनुष्यता अधिक से अधिक अध्यात्मवादी हो
गई। प्रत्येक व्यक्ति में जो विभाजन, जो विखंडन
किया गया था; वही विस्तृत पैमाने पर पूरब और
पश्चिम का विभाजन बन गया।
एक महान कवि ने लिखा है: “पूरब” पूरब है; और
“पश्चिम” पश्चिम है; और दोनों कभी नहीं मिलेंगे।
और इस कवि रुडयार्ड किपलिंग की पूरब में अत्यधिक
रुचि थी। वह कई वर्षों तक भारत में रहा-वह सरकारी
नौकरी में था। पर इस भेद को देख कर-कि संपूर्ण
पूर्वीय चेतना भीतर गति करती है, और पश्चिमी
चेतना बहिर्मुखी है…वे कैसे मिल सकते हैं?
मेरा पूरा काम रुडयार्ड किपलिंग को गलत सिद्ध
करना है। मैं कहना चाहूंगा कि न पश्चिम पश्चिम है;
न पूरब पूरब है-वे दोनों पहले से ही मिले हुए हैं। न कोई
पूरब है, न कोई पश्चिम है। उनके दृष्टिकोण बहुत भिन्न
रहे लेकिन वे समझे जा सकते हैं।
मेरी दृष्टि यह है, मेरा सारा प्रयास यह है कि प्रत्येक
व्यक्ति के भीतर एक सेतु निर्मित हो, ताकि तुम एक
हो जाओ, पूर्ण हो जाओ। देह से दुश्मनी न करो, वह
तुम्हारा घर है। अपनी आत्मा से शत्रुता न साधो,
क्योंकि बिना चेतना के हो सकता है तुम्हारा घर
खूब सजा-धजा हो, पर वह खाली मकान होगा –
बिना मालिक के – सूना। शरीर और आत्मा जब
साथ-साथ हों, तो एक सौंदर्य पैदा होता है-एक पूर्ण
जीवन! एक भरा-पूरा जीवन!!
प्रतीक रूप में मैंने शरीर के लिए जोरबा को और
आत्मा के लिए बुद्ध को चुना है। चाहे मैं जोरबा के
विषय में कहूं, या बुद्ध के बारे में बोलूं, मेरे प्रत्येक
वक्तव्य में वे दोनों ही स्वतः समाहित हो जाते हैं,
क्योंकि मेरे लिए वे अभिन्न हैं। यह सिर्फ बल देने की
बात है कि किस पर ज्यादा जोर देना है।
जोरबा केवल शुरुआत है। यदि तुम अपने जोरबा को
पूर्णरूपेण अभिव्यक्त होने की स्वीकृति देते हो, तो
तुम्हें कुछ बेहतर, कुछ उच्चतर, कुछ महत्तर सोचने के लिए
बाध्य होना पड़ेगा। वह मात्र वैचारिक चिंतन से
पैदा नहीं हो सकता, वह तुम्हारे अनुभव से जन्मेगा-
क्योंकि वे छोटे-छोटे, क्षुद्र अनुभव उकताने वाले हो
जाएंगे। गौतम बुद्ध स्वयं इसीलिए बुद्ध हो पाए,
क्योंकि वे जोरबा की जिंदगी खूब अच्छी तरह जी
चुके थे। पूरब ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि
उनतीस वर्षों तक बुद्ध इस तरह जीए, जैसा कोई
जोरबा कभी न जीया होगा।
गौतम बुद्ध के पिता ने पूरे राज्य की सारी सुंदर
लड़कियों को एकत्रित करके बुद्ध के भोग-विलास
की व्यवस्था की थी। उन्होंने भिन्न-भिन्न ऋतुओं के
लिए, अलग-अलग जगहों पर तीन शानदार महल
बनवाए। उनके पास सुंदर बाग-बगीचे और झीलें थीं।
बुद्ध का पूरा जीवन सुख-सुविधा संपन्न था, शुद्ध
भोग-विलास था! पर उससे वे उकता गए, और यह प्रश्न
उनके मन में महत्वपूर्ण होने लगा कि क्या यही सब
कुछ है? फिर मैं कल के लिए क्यों जीए जा रहा हूं।
जीवन का कुछ अर्थ, कुछ और अभिप्राय होना
चाहिए, अन्यथा जीवन सारहीन है।
बुद्धत्व की खोज प्रारंभ होती है-जोरबा को भरपूर
जी लेने से। हर आदमी बुद्ध नहीं हो पाता, उसका मूल
कारण है कि जोरबा अनजीया रह जाता है। मेरा
तर्क देखते हो न! मैं कहता हूं कि जोरबा को जी भर
के, पूर्णता से जी लो, तो तुम स्वाभाविक ढंग से बुद्ध
के जीवन में प्रवेश कर जाओगे।
अपने शरीर का सुख लो, अपने पार्थिव अस्तित्व को
भोगो, इसमें कोई पाप नहीं है। इसके पर्दे में, इसके
पीछे छिपा है तुम्हारा आध्यात्मिक विकास,
तुम्हारा आत्मिक आनंद! जब तुम भौतिक सुखों से थक
जाओगे, केवल तब तुम पूछोगे, “क्या इसके अतिरिक्त
कुछ और भी है?” स्मरण रहे, यह प्रश्न मात्र बुद्धिगत
नहीं हो सकता, इसे अस्तित्वगत होना पड़ेगा। “क्या
कुछ और भी है?” जब यह प्रश्न अस्तित्वगत होगा,
तभी तुम अपने भीतर वह “कुछ और” उपलब्ध कर पाओगे।
निश्चित ही बहुत कुछ और भी है। जोरबा तो केवल
शुरुआत है। एक बार बुद्धत्व की ज्योति जल जाए,
जागरण की आभा तुम्हारी आत्मा पर फैल जाए, तब
तुम जानोगे कि सांसारिक सुख छाया भी न था…
वहां इतना अधिक आनंद है, परमानंद! लेकिन वह आनंद
सुख के विपरीत नहीं है। वस्तुतः वह सुख ही है जो
तुम्हें इस आनंद तक ले आया है। जोरबा और बुद्ध के
बीच में कोई संघर्ष नहीं है, कोई झगड़ा नहीं है।
जोरबा तीर का निशान है, एक संकेत है – यदि तुम उस
दिशा में ठीक से अनुसरण करो, तो बुद्ध तक पहुंच
जाओगे।

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