मौन का महत्व

मौन का महत्व
हाल ही में विख्यात गायक पंडित राजन मिश्र ओशो रिजॉर्ट आए हुए थे। बातचीत में उन्होंने कहा, आजकल गायक बड़ी तैयारी के साथ गाते हैं, संगीत के नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन उनके संगीत में मौन नहीं होता। वह दिल में नहीं उतरता, क्योंकि वह उनके दिमाग से निकलता है। यह बात गौर करने लायक है। वाकई आज की जिंदगी में हर तरफ मौन का महत्व खो गया है। कोई भी मिलता है, तो हम फौरन मौसम की चर्चा शुरू कर देते हैं, कुछ भी बात शुरू कर देते हैं। वह सिर्फ बहाना होता है।
असल में, चुप रहना इतना कठिन है कि हम किसी भी बहाने से बोलना शुरू कर देते हैं। दो लोग मिलें और चुप बैठे हों, यह अजीब लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लोग एक-दूसरे से मिलें, हाथ मिलाएं, मुस्कराएं और सिर्फ साथ बैठें? क्या हम दूसरों के साथ सिर्फ शब्दों से जुड़े हैं? आजकल लोग चुप रहने की कला भूल गए हैं। फ्रायड ने अपने जीवन भर के अनुभवों के बाद लिखा है कि पहले तो मैं सोचता था कि हम बात करते हैं कुछ कहने के लिए, लेकिन मेरा अनुभव यह है कि हम बात करते हैं कुछ छिपाने के लिए।
ओशो का सुझाव है, एक आदमी के पास कुछ देर मौन होकर बैठ जाएं, तो उस आदमी को जितना आप जान पाएंगे, उतना वर्ष भर उससे बात करने से भी न जान सकेंगे। बातचीत में आप उसकी आंखों को नहीं देख पाएंगे, उसके शब्दों में ही अटक जाएंगे। उसकी भाव-भंगिमा, उसके हृदय की वास्तविकता को महसूस न कर पाएंगे। आदमी शब्दों के पार बहुत कुछ होता है। शब्दों का लेन-देन तो व्यक्तित्व का सिर्फ दो प्रतिशत हिस्सा होता है, बाकी पूरा वार्तालाप नि:शब्द तरंगों से, भावों से होता है। यही वास्तविक मिलना है। आजकल समाज में जो मिलना है, वह मिलने की औपचारिकता है। इसीलिए भीड़ में भी आदमी अकेला अनुभव करता है।
 
मौन का महत्व
यहां आने के आधा घंटे पहले से ही चुप हो जाएं। कुछ मित्र जो तीनों दिन मौन रख सकें, बहुत अच्छा है, वे बिलकुल ही चुप हो जाएं। और कोई भी चुप होता हो, मौन रखता हो, तो दूसरे लोग उसे बाधा न दें, सहयोगी बनें। जितने लोग मौन रहें, उतना अच्छा। कोई तीन दिन पूरा मौन रखे, सबसे बेहतर। उससे बेहतर कुछ भी नहीं होगा। अगर इतना न कर सकते हों तो कम से कम बोलें—इतना कम, जितना जरूरी हो— टेलीग्रैफिक। जैसे तारघर में टेलीग्राम करने जाते हैं तो देख लेते हैं कि अब दस अक्षर से ज्यादा नहीं। अब तो आठ से भी ज्यादा नहीं। तो एक दो अक्षर और काट देते हैं, आठ पर बिठा देते हैं। तो टेलीग्रैफिक! खयाल रखें कि एक—एक शब्द की कीमत चुकानी पड़ रही है। इसलिए एक—एक शब्द बहुत महंगा है; सच में महंगा है। इसलिए कम से कम शब्द का उपयोग करें; जो बिलकुल मौन न रह सकें वे कम से कम शब्द का उपयोग करें।
और इंद्रियों का भी कम से कम उपयोग करें। जैसे आंख का कम उपयोग करें, नीचे देखें। सागर को देखें, आकाश को देखें, लोगों को कम देखें। क्योंकि हमारे मन में सारे संबंध, एसोसिएशस लोगों के चेहरों से होते हैं—वृक्षों, बादलों, समुद्रों से नहीं। वहां देखें, वहां से कोई विचार नहीं उठता। लोगों के चेहरे तत्काल विचार उठाना शुरू कर देते हैं। नीचे देखें, चार फीट पर नजर रखें— चलते, घूमते, फिरते। आधी आंख खुली रहे, नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़े, इतना देखें। और दूसरों को भी सहयोग दें कि लोग कम देखें, कम सुनें। रेडियो, ट्रांजिस्टर सब बंद करके रख दें, उनका कोई उपयोग न करें। अखबार बिलकुल कैंपस में मत आने दें।
जितना ज्यादा से ज्यादा इंद्रियों को विश्राम दें, उतना शुभ है, उतनी शक्ति इकट्ठी होगी; और उतनी शक्ति ध्यान में लगाई जा सकेगी। अन्यथा हम एग्झास्ट हो जाते हैं। हम करीब—करीब एग्झास्ट हुए लोग हैं, जो चुक गए हैं बिलकुल, चली हुई कारतूस जैसे हो गए हैं। कुछ बचता नहीं, चौबीस घंटे में सब खर्च कर डालते हैं। रात भर में सोकर थोड़ा—बहुत बचता है, तो सुबह उठकर ही अखबार पढना, रेडियो, और शुरू हो गया उसे खर्च करना। कंजरवेशन ऑफ एनर्जी का हमें कोई खयाल ही नहीं है कि कितनी शक्ति बचाई जा सकती है। और ध्यान में बड़ी शक्ति लगानी पड़ेगी। अगर आप बचाएंगे नहीं तो आप थक जाएंगे।
जिन  खोजा तिन पाइयां  (  प्रवचन   1 )
 
मौन का महत्व समझें
एक बार एक मछलीमार अपना काँटा डाले ताल ाब के किनारे बैठा था। काफी समय बाद भी कोई मछली उसके काँटे में नहीं फँसी थी। उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैने काँटा गलत जगह डाला हो और यहाँ कोई मछली ही न हो। उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके काँटे के आसपास बहुत-सी मछलियाँ थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी सारी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं जबकि काँटे में दाना भी लगा है। क्या कारण हो सकता है?
वह ऐसा सोच ही रहा था कि एक राहगीर ने उससे कहा-लगता है भैया यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो। इस तालाब की मछलियाँ अब काँटे में नहीं फँसती। इस पर उसने हैरत से पूछा- क्यों, ऐसा क्या हुआ है यहाँ? राहगीर बोला- पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत आकर ठहरे थे। उन्होने यहां “मौन की महत्ता’ पर प्रवचन दिए थे। उनकी वाणी में इतना तेज़ था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ बड़े ध्यान से सुनतीं।

यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए काँटा डालकर बैठता है तो ये “मौन’ धारण कर लेती हैं। जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं तो काँटे में फँसेगी कैसे? इसलिए बेहतर यहीं है कि आप कहीं और जाकर काँटा डालो। उसकी बात मछलीमार की समझ में आ गई और वह वहां से चला गया।

कितनी सही बात है यह, जब मुँह खोलोगे ही नहीं तो फँसोगे कैसे? यह बात मछलियों की तरह उन व्यक्तियों को भी समझ लेनी चाहिए जो अपनी बकबक करने की आदत के चलते स्थान और समय का ध्यान रखे बिना अपना मुँह खोलकर मुसीबत में फँस जाते हैं। गलाकाट प्रतियोगिता के इस युग में इस बात का महत्व उस समय और बढ़ जाता है जब न जाने कौन अपना काँटा डाले आपको फँसाने के चक्कर में हो। जैसे ही आपने मुँह खोला, आप फँसे।
ऐसी स्थितियों से बचने के लिए ज़रूरी है कि हम मौन का अभ्यास करें। धीरे-धीरे अभ्यास से हम सीख जाएं !

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