प्रेम और घृणा के बीच होना चाहिए संतुलन Osho

प्रश्न: कल रात की पहली विधि में बताया गया कि एकांत में रहना संबंधों को कम से कम करना है, लेकिन पहले कभी आपने कहा था कि अपने संबंधों को असीमित रूप से बढ़ाना चाहिए।
दोनों में से कुछ भी करो। या तो अपने को इतना फैलाओ कि कुछ भी तुमसे असंबंधित न रह जाए, तब तुम खो जाओगे; या इतने अकेले हो जाओ कि कुछ भी तुमसे संबंधित न रहे तब भी तुम खो जाओगे। तुम मध्य में हो, जहां कुछ संबंधित है और कुछ संबंधित नहीं है, जहां कोई मित्र है और कोई शत्रु है, जहां कोई अपना है और कोई पराया है, जहां चुनाव है। तुम मध्य में हो। किसी भी अति पर चले जाओ। हर किसी से संबंधित हो जाओ, हर चीज से संबंधित हो जाओ-और तुम खो जाओगे।
हर चीज से संबंधित हो जाना इतनी विराट घटना है कि तुम नहीं बच सकते तुम तो डूब जाओगे। तुम्हारा अहंकार इतना संकरा है कि वह केवल थोड़े से संबंधों में ही जी सकता है और उनमें भी वह किसी न किसी चीज के विरुद्ध होता है, वरना वह जी ही नहीं सकता। यदि संसार की हर चीज के साथ तुम मैत्रीपूर्ण हो जाओ तो तुम खो जाते हो। यदि तुम अहंकार की तरह रहना चाहते हो तो भी तुम मैत्रीपूर्ण हो सकते हो; लेकिन तब तुम्हें किसी से शत्रुता भी करनी होगी। किसी से तुम्हें प्रेम करना होगा और किसी से घृणा करनी होगी। तब तुम इन दो विरोधाभासों के बीच जी सकते हो अहंकार बच सकता है। तो या तो सबको प्रेम करो और तुम समाप्त हो जाओगे, या सबको घृणा करो और तुम समाप्त हो जाओगे। यह विरोधाभासी लगता है, है नहीं। विधि एक ही है। विधि वही है चाहे तुम सबको प्रेम करो, चाहे सबको घृणा करो।
हर चीज की घृणा को पूरब में वैराग्य कहते हैं। हर चीज से घृणा में तुम अपना प्रेम पूरी तरह से खींच लेते हो, महसूस करते हो कि सब व्यर्थ है, कोई मूल्य नहीं है। यदि तुम इतनी समग्रता से घृणा कर सको तो तुम पूर्ण हो जाओगे, तब तुम नहीं रह सकते। तुम केवल तभी हो सकते हो जब दो विरोधाभास हों: प्रेम और घृणा। इन दो के बीच तुम संतुलित होते हो। यह ऐसे ही है जैसे कोई रस्सी पर चल रहा हो। उसे दाएं और बाएं के बीच संतुलन रखना पड़ता है। कोई एक चुन लो। यदि तुम रस्सी पर बने रहना चाहते हो तो तुम्हें संतुलन करना पड़ेगा, कभी बाईं ओर, कभी दाईं ओर। और सच में संतुलन एक विज्ञान है। जब तुम बाईं ओर झुकोगे तो तत्क्षण तुम्हें दाईं ओर झुकना पड़ेगा, क्योंकि बायां हिस्सा गिरने की संभावना पैदा कर देगा उसके विपरीत संतुलन करने के लिए तुम्हें दाईं ओर झुकना पड़ेगा और जब तुम दाईं ओर झुकोगे तो फिर गिरने की संभावना हो सकती है। तो तुम्हें बाईं ओर झुकना पड़ेगा। यही कारण है कि तुम प्रेम और घृणा के बीच, मित्र और शत्रु के बीच, इसके और उसके बीच, पसंद और नापसंद, आकर्षण और विकर्षण के बीच गति करते रहते हो। तुम सतत एक रस्सी पर चल रहे हो।
यदि तुम इसे न समझो तो तुम्हारा पूरा जीवन एक उलझन ही रहेगा। मैंने बहुत से लोगों का अध्ययन किया है और यह बुनियादी परेशानियों में से एक है। वे प्रेम करते हैं फिर घृणा करते हैं; और वे समझ नहीं पाते कि जब वे प्रेम करते हैं तो फिर घृणा क्यों करते हैं। इस तरह वे संतुलन करते हैं और यह संतुलन तुम्हें अहंकार देता है, तुम्हारा व्यक्तित्व देता है। यदि तुम सच में अहंकार को छोडऩा चाहते हो तो कोई भी अति चुन लो। बाईं ओर झुक जाओ प्रेम करो और उसे दाएं से संतुलित मत करो-तुम रस्सी से गिर जाओगे। या दाईं ओर झुक जाओ, घृणा करो और पूरी तरह से घृणा करो और बाईं ओर मत जाओ, तुम रस्सी से गिर जाओगे। बहुत लोग मुझे प्रेम करते हैं, और मुझे पता है कि देर-अबेर वे संतुलन करेंगे और घृणा करने लगेंगे और जब वे घृणा करते हैं तो व्यथित हो जाते हैं। उन्हें व्यथित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसे ही तो वे रस्सी पर बने रह सकते हैं।
सुबह तुम प्रेम करते हो और शाम को घृणा करते हो, सुबह तुम फिर प्रेम करने-लगते हो। जब तक तुम अहंकार को छोड़ने को तैयार नहीं हो तब तक यह संतुलन चलता रहेगा। यह अनंत काल तक चल सकता है, रस्सी अंतहीन है। लेकिन एक बार तुम पूरे खेल से ऊब जाओ, एक बार तुम्हें दिख जाए कि यह व्यर्थ है-हर बार घृणा और प्रेम से संतुलन करना और बार-बार विपरीत दिशा में जाना, यह बेकार है-तब तुम किसी एक छोर पर जा सकते हो, और एक बार-तुम रस्सी से हटे कि तुम संबुद्ध हो।
ओशो

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