गुरु बिन नाहीं ज्ञान Osho

दुनिया में तीन तरह के गुरु संभव हैं। एक तो जो गुरु कहता है: गुरु के बिना नहीं होगा। गुरु बनाना पड़ेगा। गुरु चुनना पड़ेगा। गुरु बिन नाहीं ज्ञान। यह सामान्य गुरु है। इसकी बड़ी भीड़ है। और यह जमता भी है। साधारण बुद्धि के आदमी को यह बात जमती है, क्योंकि बिना सिखाए कैसे सीखेंगे? भाषा भी सीखते तो स्कूल जाते। गणित सीखते तो किसी गुरु के पास सीखते। भूगोल, इतिहास, कुछ भी सीखते हैं तो किसी से सीखते हैं। तो परमात्मा भी किसी से सीखना होगा। यह बड़ा सामान्य तर्क है- थोथा, ओछा, छिछला- मगर समझ में आता है आम आदमी के, कि बिना सीख कैसे सीखोगे। सीखना तो पड़ेगा ही। कोई न कोई सिखाएगा, तभी सीखोगे। इसलिए निन्यानबे प्रतिशत लोग ऐसे गुरु के पास जाते हैं, जो कहता है- गुरु के बिना नहीं होगा।
दूसरी तरह का गुरु भी होता है। जैसे कृष्णमूर्ति हैं। वे कहते हैं- गुरु हो ही नहीं सकता। गुरु करने में ही भूल है। जैसे एक कहता है- गुरु बिन नाहीं ज्ञान। वैसे कृष्णमूर्ति कहते है- गुरु संग नाहीं ज्ञान। गुरु से बचना। गुरु से बच गए तो ज्ञान हो जाएगा। गुरु में उलझ गए तो ज्ञान कभी नहीं होगा। सौ में बहुमत, निन्यानबे प्रतिशत लोगों को पहली बात जमती है, क्योंकि सीधी-साफ है। थोड़े से अल्पमत को दूसरी बात जमती है, क्योंकि अहंकार के बड़े पक्ष में है।
तो जिनको हम कहते हैं बौद्धिक लोग, इंटेलिजेन्सिया, उनको दूसरी बात जमती है, क्योंकि उनको अड़चन होती है किसी को गुरु बनाने में। कोई उनसे ऊपर रहे, यह बात उन्हें कष्ट देती है।
कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति को सुन कर वे कहते हैं- अहा! यही बात सच है। तो किसी को गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं है। किसी के सामने झुकने की कोई जरूरत नहीं है। उनके अहंकार को इससे पोषण मिलता है। अब तुम फर्क समझना। पहली बात में आधा सच है कि गुरु बिन नाहीं ज्ञान, क्योंकि गुरु के बिना तुम साहस जुटा न पाओगे। जाना अकेले है। पाना अकेले है। जिसे पाना है, वह मिला ही हुआ है। कोई और उसे देने वाला नहीं है। फिर भी डर बहुत है, भय बहुत है, भय के कारण कदम नहीं बढ़ता अज्ञात में। दूसरी बात भी आधी सच है- कृष्णमूर्ति की। गुरु बिन नाहीं ज्ञान की बात ही मत करो, गुरु संग नहीं ज्ञान। क्यों? क्योंकि सत्य तो मिला ही हुआ है, किसी के देने की जरूरत नहीं है। और जो देने का दावा करे, वह धोखेबाज है। सत्य तुम्हारा है; निज का है; निजात्मा में है; इसलिए उसे बाहर खोजने की बात ही गलत है। किसी के शरण जाने की कोई जरूरत नहीं है। अशरण हो रहो। बुद्ध अदभुत गुरु हैं। बुद्ध दोनों बातें कहते हैं। कहते हैं: गुरु के संग ज्ञान नहीं होगा। और दीक्षा देते हैं। और शिष्य बनाते हैं। और कहते हैं: किसको शिष्य बनाऊं? कैसे शिष्य बनाऊं? मैंने खुद भी बिना शिष्य बने पाया। तुम भी बिना शिष्य बने पाओगे। फिर भी शिष्य बनाते हैं।
बुद्ध बड़े विरोधाभासी हैं। यही उनकी महिमा है। उनके पास पूरा सत्य है। और जब भी पूरा सत्य होगा तो पैराडॉक्सिकल होगा; विरोधाभासी होगा। जब पूरा सत्य होगा तो संगत नहीं होगा। उसमें असंगति होगी, क्योंकि पूरे सत्य में दोनों बाजुएं एक साथ होंगी। पूरा आदमी होगा तो उसका बायां हाथ भी होगा और दायां हाथ भी होगा। जिसके पास सिर्फ बायां हाथ है, वह पूरा आदमी नहीं है। उसका दायां हाथ नहीं है। हालांकि एक अर्थ में वह संगत मालूम पड़ेगा, उसकी बात में तर्क होगा।
बुद्ध की बात अतर्क्य होगी, तर्कातीत होगी, क्योंकि दो विपरीत छोरों को इकट्ठा मिला लिया है। बुद्ध ने सत्य को पूरा-पूरा देखा है। तो उनके सत्य में रात भी है, और दिन भी है। और उनके सत्य में स्त्री भी है, और पुरुष भी है, और उनके सत्य में जीवन भी है, और मृत्यु भी है। उन्होंने सत्य को जितनी समग्रता में देखा, उतनी ही समग्रता में कहा भी। तो वे दोनों बात कहते हैं। वे कहते हैं- किसको शिष्य बनाऊं? और रोज शिष्य बनाते हैं।
बुद्ध ने तो कहा है कि मेरा जो आने वाला अवतार होगा, उसका नाम होगा मैत्रेय। मित्र। गुरु सदा से निकटतम मित्र है। कल्याण-मित्र। तुम से कुछ चाहता नहीं। उसकी चाह जा चुकी। वह अचाह हुआ। तुम्हारा कोई उपयोग करने का प्रयोजन नहीं। उसे कुछ उपयोग करने को बचा नहीं। जो पाना था, पा लिया। वह अपने घर आ गया। वह तुम्हारी सीढ़ी न बनायेगा। वह तुम्हारे कंधे पर न चढ़ेगा। प्रयोजन नहीं। जो देखना था, देख लिया; जो होना था, हो लिया। सब तरह तृप्त। ऐसा कोई व्यक्ति मिल जाए तो सौभाग्य है। ऐसे व्यक्ति की छाया फिर छोड़ना मत। फिर बना लेना अपना घोंसला उसी की छाया में। फिर करना विश्राम, वहीं खोल देना अपने हृदय को पूरा।

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