सबसे बड़ा सच मनुष्य
ओशो का भौतिक शरीर तो 11 दिसंबर 1931 को पैदा हुआ और 19 जनवरी 1990 को इस दुनिया से विदा हुआ, लेकिन केवल शरीर के विदा होने से विदा होने वाली वह चेतना नहीं है। इस ग्रह से जाने से पहले उन्होंने अपनी समाधि पर जो लिखवाया, वह बहुत अर्थपूर्ण है: ‘ओशो: जो न कभी पैदा हुए, न कभी मृत हुए; वे इस पृथ्वी ग्रह पर आए 11 दिसंबर 1931 और 19 जनवरी 1990 के बीच।’ इसका मतलब ओशो किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, वरन् वह एक चेतना है। चेतना का न जन्म होता है, न मृत्यु, वह सदा वर्तमान है। इसीलिए ओशो ने हिदायत दी है कि ‘मेरा उल्लेख कभी भूतकाल में मत करना।’ इस आदेश का गर्भित अर्थ अब प्रगट हो रहा है, क्योंकि हम देख रहे हैं कि पूरी पृथ्वी पर ओशो के शब्द, उनकी ध्यान विधियां सूर्य प्रकाश की तरह फैलती जा रही हैं। इसकी भविष्यवाणी भी उन्होंने की थी कि ‘1996 के बाद मैं हवाओं पर सवार हो जाऊंगा।’ और वे हो गए!
ओशो के विषय में अक्सर पूछा जाता है कि ओशो का दर्शन क्या है। स्वभावत: जिन्होंने 650 किताबें बोली हैं, उनका कोई तो सिद्धांत, कोई तो ‘वाद’ होगा। वे क्या कहना चाहते हैं? ओशो के बारे में सबसे अनूठी बात यह है कि उन्हें किसी कोटि में बांधा नहीं जा सकता, क्योंकि विश्व में जितने भी दर्शन हैं, जितने भी ‘इज्म’ हैं, उनकी उन्होंने व्याख्या की है। जिन बुद्धपुरुषों पर वे बोले हैं, उन सबके अपने मत हैं, उनके परस्पर-विरोधी दर्शन हैं, लेकिन उससे ओशो को कोई फर्क नहीं पड़ता। अब शंकराचार्य का मीरा से क्या मेल हो सकता है? या महावीर और तंत्र में क्या समानता है? कहां जीसस क्राइस्ट और कहां पतंजलि का योग! लेकिन इन सब विपरीत ध्रुवों की ओशो ने अत्यंत गहन और रसपूर्ण व्याख्याएं की हैं। वे ऐसा मजे से कर सके, क्योंकि उनका अपना कोई दर्शन नहीं है, न कोई सिद्धांत है। उनकी चेतना एक शून्य है, एक खाली दर्पण; और चूंकि वह दर्पण है, वह किसी को भी प्रतिबिंबित कर सकता है। दर्पण का अपना चुनाव कहां होता है? जो सामने आया, दिखा दिया। कोई नहीं आया तो खाली
बैठे हैं।
तथापि कुछ बातें ओशो के वचनों में अंतर्धारा की तरह बहती हैं। उनमें से सबसे पहली है विधायकता, जीवन से प्रेम। अतीत के सभी धर्म जीवन को मिथ्या बताते हैं, ‘जीवन को त्यागो, शरीर से प्रेम मत करो।’ और ओशो कहते हैं, यह जीवन ही सब कुछ है। इसे छोड़ कर परमात्मा को कहां पाओगे? जीवन कितना ही दूभर हो, इससे भागना नहीं है, इसमें जागना है, क्योंकि भाग-भाग कर भी कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहां ‘तुम’ तो रहोगे ही। और मूलत: तुम अपने आपसे भाग रहे हो। तुम ही हो समस्या। इसलिए कहीं जाना हो तो भीतर जाओ, बाहर नहीं। ‘सत्य यह है कि मनुष्य के भीतर एक विराट आकाश छिपा है। जो अपने भीतर उतर जाए, वह जगत के रहस्यों के द्वार पर खड़ा हो जाता है। उसके लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। जो अपने भीतर की सीढ़ियां उतरने लगता है, वह जीवन के मंदिर की सीढ़ियां उतरने लगता है। जो अपने भीतर जितना गहरा जाता है, उतना ही परमात्मा का अपूर्व अद्वितीय रूप, सौंदर्य सुगंध संगीत सब बरस उठता है।’
ओशो मानवता के समूचे अतीत को नकारते हैं। प्राचीन धर्म, संस्कृति, शास्त्र, विचारधाराएं, जो-जो हमने सीने से लगाया हुआ है, उसे तिलांजलि देकर ही भीतर प्रवेश हो सकता है। यह समय का तकाजा है। आज हम जिस मोड़ पर खडे़ हैं, वह नए मनुष्य की मांग कर रहा है। नया मनुष्य पुराने मनुष्य का बोझ नहीं ढो सकता। मुश्किल यह है कि समाज पुराने के साथ है, इसलिए नया होने के लिए उसे छोड़ कर निपट अकेला होना पड़ेगा। यही भय है। लेकिन यह भय केवल प्रारंभिक है; एक बार व्यक्ति को अपने शक्ति-स्रोत का पता चला जाए तो वह बड़े शान से नवजात आत्मबल के साथ घोषणा करेगा- साबार ऊपर मानुष सत्य।