एक राजनेता अक्सर ओशो के पास आते और कहते थे कि उनका मन बड़ा अशांत है, इसलिए उन्हें कोई मंत्र दे दें। ओशो ने उनसे पूछा कि मन क्यों अशांत है, इसके कारण खोजो, मंत्र-जाप करने से क्या होगा? पहले तो वह टालते रहे, क्योंकि उन्हें ही अशांति का कारण पता नहीं था।
धीरे-धीरे वह अपने मन में उतरे, तब उन्होंने जाना कि वह अशांत हैं, क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री बनना है। उन्होंने कहा, ‘मैं दस साल से कोशिश में लगा हूं, लेकिन बस मंत्री पर ही अटक गया हूं। मेरे से पीछे आने वाले लोग, जो न कभी जेल गए, न कोई त्याग-तपस्या की, वे भी मुख्यमंत्री हो गए। इसलिए चित्त बड़ा अशांत रहता है। नींद तो आती ही नहीं।’
दरअसल, उनकी महत्वाकांक्षा ही अशांति की जड़ थी। महत्वाकांक्षा एक बीमारी है। जब तक आदमी वह पद नहीं पा लेता, जिसकी उसे लालसा है, तब तक वह शांत नहीं हो सकता। उसे एक बुखार-सा चढ़ा होता है। किसी भी मंत्र-जाप से यह बुखार नहीं उतरेगा, उल्टे एक धोखा पैदा होगा। बीमार मन के लिए मंत्र एक सम्मोहन, एक नींद पैदा करता है। मंत्र नशा है। एक ही शब्द की, एक ही लय सुर में पुनरुक्ति करने से रासायनिक परिवर्तन होते हैं भीतर। उन रासायनिक परिवर्तनों का वही असर होता है, जो बाहर से नशा करने से होता है।
नशे में और मंत्र में कोई बुनियादी भेद नहीं होता है। जैसे ही उसका प्रभाव खत्म हुआ, अशांति लौट आएगी। जितनी इच्छाएं मन में होंगी, उतनी ही मन में तरंगें उठती रहेंगी। और ये तरंगें न रात में सोने देंगी, और न दिन में चैन लेने देंगी। इस हकीकत को जो देख ले, उसके जीवन में शांति अपने आप घटेगी। जीवन में जो भी सकारात्मक होता है, वह अपने आप होता है। उसके लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। जो गलत बातें मन में बस गई हैं, उन्हें दूर कर दें, सही तो अंदर मौजूद ही है।
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