हम सब एक ही बात खोज रहे हैं- प्रसन्नता, आनंद, खुशी। सदियों से इसे तलाश रहे हैं, लेकिन अभी तक नहीं मिल पाया है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बहुत परिश्रम से खोज रहे हैं, शायद इसीलिए वंचित रहे। ओशो तो यही कहते हैं कि बहुत प्रयत्न करेंगे, तो प्रसन्नता से वंचित रहेंगे। कुछ ओशो सूत्रों पर गौर करें- खोजने से आनंद किसी को नहीं मिला। इसी खोज में कुछ गलत है, क्योंकि खोज में आप स्वयं को भूल जाते हैं, आप दूसरी चीजों को देखने लगते हैं। और यह खोज अधिक से अधिक निराशाजनक हो जाती है, क्योंकि जितना आप खोज करते हैं, उतना पाते नहीं, तो उतनी ही भारी चिंता होने लगती है। प्रसन्नता चेतना की स्वाभाविक स्थिति है, जब वह जागृत होती है। अप्रसन्नता चेतना की सुप्तावस्था की स्थिति है। आपकी चेतना के दर्पण पर बड़ी धूल जमी होती है। प्रसन्नता तभी आती है, जब धूल हटा दी जाती है और दर्पण को पुन: प्राप्त किया जाता है।
जब लोग बहुत ज्यादा भागदौड़ करते हैं, इधर-उधर दौड़ते रहते हैं, तब वे दुखी होते हैं। प्रसन्नता के मायने हैं संपूर्ण विश्रम। आप ऐसा सोचते हैं कि इधर-उधर भागने से प्रसन्नता मिलेगी, लेकिन अंतत: यह सारी भागदौड़ आपको दुखी बनाती है। प्रसन्नता विश्रम का वह क्षण है, जब कोई दौड़ नहीं होती, जब आप सिर्फ आराम कर रहे होते हैं, जब आप मन से सिर्फ वहीं होते हैं, जहां होते हैं। तब उस आराम के क्षणों में प्रसन्नता होती है। इसी क्षण प्रसन्नचित्त हो जाओ! इसे स्थगित न करो। दुखी रहने का बहाना न ढूंढ़ें। दिल खोलकर हंस लें! समग्रता से नृत्य करें! प्रसन्नता वस्तुओं में नहीं है, न किसी घटना में है। प्रसन्नता तो चित्त की एक अवस्था है। यह मत कहें कि मुझे यह मिल जाए, तो मैं खुश होऊंगा या होऊंगी। खुशी हृदय में उपजती है, वह स्वस्थ हृदय का स्वभाव है। थोड़ा साहसी बनिए और अपने भीतर प्रवेश करें। वहां अंधेरा होगा, लेकिन उससे डरें मत, शीघ्र ही प्रसन्नता का सूरज उगेगा।