हाल ही में एक राजनेता से मुलाकात हुई। काफी मोटे-ताजे शख्स हैं, वह अपने बेटे को लेकर ओशो रिजॉर्ट देखने आए थे। अपना सरकारी पहचान पत्र दिखा रहे थे, ताकि रौब जमे। नेताजी का बेटा होगा कोई 20 साल का, नाम था संयम। नाम मुझे कुछ अनोखा-सा लगा, सो मैंने पूछा, ‘आपने यह नाम कैसे रखा?’ तो उन्होंने कहा, ‘मेरे अंदर संयम नहीं है, इसलिए मैंने इसका नाम संयम रखा, ताकि मैं उसे जब भी बुलाऊंगा, तो मुझे संयम रखने की याद आएगी।’ नुस्खा तो अच्छा सोचा उन्होंने। कामयाब होता, तो इससे बढ़िया बात न थी। लेकिन वह बात-बात पर नाराज हो रहे थे, उनका गुस्सा बोरे में भरे अनाज की तरह छलक रहा था। मैंने पूछा, ‘आपने 20 साल में कम से कम 20 हजार बार संयम का नाम लिया होगा, क्या आपने संयम करना सीखा? मुझे तो उल्टा ही दिख रहा है। बेटा संयमित लग रहा है, आप नहीं।’
वह बोले, ‘कोशिश कर रहा हूं, एक न एक दिन संयम आ ही जाएगा।’ संयम सीखने का मतलब यह नहीं है कि आप संयम शब्द का जाप करें। सिर्फ जाप करने से कोई गुण नहीं आता। संयम को पैदा करने के लिए यह देखना पड़ेगा कि बात-बात पर संयम क्यों टूटता है। इतनी नाराजगी, इतनी बेचैनी मन में क्यों है? संयम शब्द का अर्थ है सम्यक यम। योग सूत्रों में यम और नियम को योग के आधार बताए गए हैं। संयम का अर्थ अब नियंत्रण हो गया है, लेकिन मूलत: संयम यानी अपनी ऊर्जा को सम्यक दिशा देना, अपने आसपास सामंजस्य और मित्रता का वातावरण बनाना। जिसे भी अपने जीवन का विकास करना है, उसे मन के उद्वेगों को संभालना पड़ता है। मन शांत हो, तो ही ध्यान की सीढ़ियां चढ़ी जा सकती हैं। इन राजनेता के साथ यह हुआ कि उनका क्रोध संभालते-सभालते उनका बेटा संयमी हो गया। पिता का संयम तो सिर्फ नाम पुकारने तक सीमित रह गया।