भोजन को छूने से जुड़े कई ऐसे पारंपरिक नियम है, जिनके बारे में हमें अकसर सुनने को मिलता है। क्यों बनाए गए थे ये नियम। जानते हैं इनके वैज्ञानिक कारण के बारे में।
प्रश्न : सद्गुरु, मेरी परवरिश एक पारंपरिक परिवार में हुई है। हमारे यहां भोजन से जुड़े कुछ ऐसे नियम रहे हैं जिनका कड़ाई से पालन किया जाता है। जैसे जिस बर्तन में पके हुए चावल या दूसरे पके हुए खाद्य पदार्थ रखें हों, उन्हें छूने के बाद हाथ धोना। मेरे मन में हमेशा यह बात उठती है कि क्या ऐसे नियमों का वाकई कोई महत्व या औचित्य है?
सद्गुरु : हालांकि इन नियमों व परंपराओं में से कुछ ने अजीबोगरीब रूप ले लिया है, लेकिन अगर आप इनको ध्यान से देखें तो आपको नजर आएगा कि ये अपने आप में वैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं। ये परंपराएं, ये नियम आपके सिस्टम में एक खास तरह की शुद्धता को बनाए रखने में मदद करते हैं, जिससे आपका सिस्टम एक खास तरीके से काम कर सके। इन नियमों को ब्राह्मण-आचरण कहा जाता है।
इनमें से ज्यादातर नियम व प्रक्रियाएं इस सोच पर केंद्रित थीं, कि इससे इंसान के शरीर में आने वाली जड़ता को कम किया जा सके। तमस को रोकना ही ब्राह्मण जीवन का केंद्र बिंदु हुआ करता था। आज ब्राह्मण महज एक जाति होकर रह गई है, लेकिन कभी यह एक पेशा हुआ करता था। एक खास पेशे को करने के लिए एक खास स्तर की बुद्धि व समझ की जरूरत होती थी।
जड़ता को कम करने की जरुरत है
अगर किसी की बुद्धि को खास तरह से काम करना है तो उसके भीतर जड़ता कम से कम होनी चाहिए। यह जड़ता कितनी कम है, इससे यह तय होता है कि उस व्यक्ति के मन और बुद्धि की एकाग्रता और तीव्रता कैसी होगी। इस आधार पर उन्होंने नियम बनाए, जिन्हें आप जीवन-आचरण कह सकते हैं। ये अभ्यास, आध्यात्मिक अभ्यास से अलग थे, ये दैनिक जीवन के कामकाज से जुड़े थे, जैसे – कैसे बैठें, कैसे खड़ें हों, कैसे खाएं, क्या खाएं, क्यां नहीं खाएं, आप जो भी खातें हैं, उसे कैसे खाएं, उसे किसके साथ खाएं, उसमें आप क्या मिलाएं और क्या न मिलाएं आदि। मैं इन सब नियमों के विस्तार में नहीं जाऊंगा, लेकिन निश्चित तौर पर इनका वैज्ञानिक आधार है। समय के साथ इनमें से ज्यादातर नियम बढ़-चढ़ कर अजीबोगरीब हालत तक पहुंच गए, जिन पर गौर किए जाने की जरूरत है। लेकिन इनमें से ज्यादातर नियम इंसान की बौद्धिक क्षमताओं को बढ़ाने की वैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं।
कान पकड़कर उठक-बैठक लगाने का वैज्ञानिक आधार है
हिंदू जीवन पद्धति की बहुत सारी चीजें इसी तरफ केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए अगर आप आज भी देखें कि जब लोग मंदिर, खासकर गणपति मंदिर जाते हैं तो वहां भगवान के सामने लोग अपने दोनों हाथों से उलटे कानों को – दाहिने हाथ से बाएं कान को और बाएं हाथ से दाहिने कान को पकड़कर उठक-बैठक लगाते हैं। हालांकि समय के साथ यह आंडबर का रूप लेता गया, लेकिन अगर आप इसे ठीक तरीके से करेंगे तो इसका असर होता है।
आज इसे लेकर बहुत सारे अध्ययन हुए हैं, खासकर येल यूनिवर्सिटी ने इसे लेकर काफी अध्ययन करके यह दिखाने की कोशिश की है कि अगर आप इस तरह से कानों को पकड़ेंगे और इस दौरान कोई गतिविधि को तेजी से करेंगे तो दाएं व बांए दिमाग में आपस में संचार काफी बढ़ जाएगा। आपको एक बात समझनी होगी कि यह प्रक्रिया गणपति के सामने की जाती है। गणपति बुद्धि के मामले में सबसे तेज व योग्य समझे जाते हैं। वह इतने बुद्धिमान माने जाते हैं कि देश के तमाम पुराण व ग्रंथ उन्हीं के द्वारा लिखे हुए माने जाते हैं। जब उन्होंने लिखना शुरु किया तो उन्होंने लिखवाने वाले लोगों को चुनौती दी और कहा, ‘जब आप कुछ बोल कर लिखवाना शुरू करें तो आप बीच में एक पल के लिए भी नहीं रुकेंगे, अगर आप बीच में रुक गए तो मैं फिर आगे आपके लिए काम नहीं करूंगा।’ दरअसल, उनके ऐसा कहने के पीछे भाव था कि वह सामने वाले से एक खास स्तर की बुद्धिमानी की अपेक्षा कर रहे थे। एक तरह से वह कहना चाहते थे कि मैं बेवकूफों के साथ काम नहीं करूंगा।
शाम्भवी महामुद्रा से मस्तिष्क के दो हिस्सों में तालमेल आता है
आपकी बुद्धि कितनी लचीली और प्रभावशाली है, यह इस पर निर्भर करता है कि आपके मस्तिष्क के बाएं व दाएं भाग कितनी अच्छी तरह से आपस में तालमेल बैठा पा रहे हैं। हमने शांभवी महामुद्रा के मामले में देखा है कि इसके समुचित अभ्यास से छह से बारह हफ्ते में मस्तिष्क के बाएं व दाएं हिस्सों के बीच का संतुलन जबरदस्त तरीके से बढ़ जाता है। अध्ययनों से यह बात साबित हो चुकी है।
जिस तरह से पहले वे आपस में संचार कर रहे थे, उसमें काफी फर्क देखा गया। या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उसके बाद आधा दिमाग इस्तेमाल करने के बजाय आप पूरा दिमाग इस्तेमाल करने लगते हैं। यकीन मानिए, यह वाकई बड़ा बदलाव है। तो इस तरह के यहां तमाम अभ्यास व परंपराएं हैं। भारत में यह एक बड़ी आम बात थी कि अगर बच्चा बेहद चंचल या आलसी, दोनों में से कुछ भी होता था तो अध्यापक उन्हें सजा देते थे – अपने कान पकड़ो और उठक-बैठक लगाओ। इससे लोगों में संतुलन आता था। ये सारी वैज्ञानिक प्रक्रियाएं थीं। दुर्भाग्य से हम ऐसी स्थिति में आ पहुंचे हैं, जहां माना जाता है कि विज्ञान लोगों के एक खास तबके से ही आता है, जिन्हें वैज्ञानिक कहते हैं। इन्हें भारी मात्रा में फंड मुहैया कराया जाता है, ये अरबों डॉलर खर्च कर वो चीज पता करते हैं, जिसका पता तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों में हजारों साल पहले से लोगों को था। लेकिन वे तमाम चीजें आज विज्ञान का एक छोटा सा हिस्सा भर बन कर रह गई हैं।
इन नियमों को छोड़ना ठीक नहीं होगा
जीवन में ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो सामान्य लोग काफी वैज्ञानिक तरीके से कर रहे हैं, लेकिन निश्चित तौर पर हमारा वैज्ञानिक समुदाय वैज्ञानिक तरीके से जीवन नहीं जी रहा है। आज का सारा विज्ञान महज किताबों और बौद्धिकता में सिमट कर रह गया है। जबकि विज्ञान को जीना लगातार कम से कम होता जा रहा है। तो इन नियमों के पीछे कुछ वैज्ञानिक आधार है, लेकिन इसमें कुछ सुधार व सफाई की भी जरूरत है, क्योंकि समय के साथ संभव है कि इनमें बहुत ज्यादा विकृति आ गई हो। क्योंकि पिछली कुछ सदियों में इनका संचारण – एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपने का काम – काफी बाधित हुआ है। हो सकता है कि इन बाधाओं की वजह से ये नियम अपने विशुद्ध रूप में अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंचे हों और इनमें कुछ अजीबोगरीब विकृतियां आ गई हों। ऐसे में ठीक यह होगा कि इन नियमों को छोड़ने की बजाय इन्हें ठीक करके व्यवहार में लाया जाए। क्योंकि इन प्राचीन नियमों का खासा महत्व है। बस आप इन्हें काट-छांट कर ठीक कर दीजिए और सजग रूप से अधिक जागरूकता के साथ इनका पालन कीजिए – यह ध्यान रखते हुए कि किनको करना उचित है, किनको करना उचित नहीं है।