समस्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर देखना हमारी आदत होती है। मनोवैज्ञानिक लिंडा क्लूनर कहती हैं कि समस्याएं एक पिचके गुब्बारे की तरह हैं। आप हवा भरेंगे, तभी वे बड़ी होंगी। इससे बचना है, तो खुद को बिल्कुल सामान्य रखना होगा। समस्याओं से खुद को अलग करके देखना होगा। ओशो समस्याओं को लेकर कहते हैं- जीओ, नाचो, खाओ, सोओ। काम जितना हो सके, समग्रता से करो। और हमेशा इस बात का ख्याल रखो कि जब भी तुम खुद को कोई समस्या निर्मित करते पा रहे हो, तो उससे बाहर निकल जाओ, तत्क्षण। दरअसल, आप जैसे ही निरपेक्ष रहकर विचार करते हैं, पाते हैं कि समस्याओं को हालात ने कम और आपने ज्यादा निर्मित किया है।
आप अगर समस्याओं को वाकई बड़ा मानते हैं, तो भी गोलिएथ राक्षस की कहानी याद रखनी चाहिए, जिसे डेविड नाम के बच्चे ने केवल अपनी गुलेल से मार गिराया था। डेविड की सोच यह थी कि अगर राक्षस विशाल है, तो फिर उसे मारना और भी आसान है, क्योंकि ऐसे में इस बात की आशंका काफी कम है कि निशाना चूक जाएगा। फर्डीनांड मैगलन ने अगर समुद्र के आकार पर ध्यान दिया होता, तो वे समुद्र का चक्कर इस तरह नहीं लगा पाते, जैसे अपने गांव का चक्कर लगा रहे हों। समस्या को देखकर, उसका आकार देखकर घबराना ऐसा काम है, जिसके लिए हम नहीं बने हैं।
इस मुद्दे पर नेपोलियन हिल कहते हैं- समस्या कोई भी हो, अपनी जेब में बगैर अवसर का पासपोर्ट लिए वह हमारी दुनिया में कदम नहीं रखती। बस हमें जरूरत है उसकी जेब को टटोलने की। जिसने इसे पा लिया, उसके आगे नए सफर का टिकट खुद-ब-खुद आ जाता है। क्या हम समस्याओं की जेब को टटोलते हैं? ज्यादातर तो नहीं। हम तो उनको दूर रखने में, उनसे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं और ऐसा करते-करते उनके चक्रव्यूह में फंस जाते हैं।