लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई

हम देश बनाने की जल्दी में थे। सत्तर साल के दौरान, दोनों तरफ से कितने लोग जान गंवा चुके हैं। किस लिए? इन सीमाओं को सही तरह से खींचने के लिए हम वक्त ले सकते थे।

एक अप्राकृतिक सीमा

ये देश बहुत जल्दबाजी में बनाया गया, यानी हमने बस नक्शे पर लकीरें खींच दीं, अलग-अलग भौगोलिक विशेषताओं को ध्यान में रखे बिना। जब आप भौगोलिक विशेषताओं को ध्यान में रखे बिना लकीरें खींचते हैं, तो उन लकीरों की सुरक्षा करना बहुत ही मुश्किल होता है। मुझे लगता है कि सेनाओं के साथ यह सबसे बड़ा अन्याय हुआ है। नौसेना को छोडक़र, जिसके पास एक स्पष्ट, कुदरती सरहद है – अभी आप इसी समस्या से जूझ रहे हैं। ये सही नहीं है।

सौ मील इस तरफ, सौ मील उस तरफ होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर ये काम थोड़ी समझदारी और न्याय से किया गया होता तो आज हालात ऐसे नहीं होते।

सिर्फ गांव ही नहीं, इन लकीरों ने घरों को भी बांट दिया।

आप ऐसी बेतुकी लकीरें खींचते हैं, और उम्मीद करते हैं कि उसकी सुरक्षा की जाए, सेनाओं से उम्मीद है कि वे उस बेतुकी लकीर की सुरक्षा करें। मैं पूरे सम्मान के साथ ये कह रहा हूं क्योंकि आज मैं ‘हॉल ऑफ फेम’ देखने गया, मैंने पहले विश्व युद्ध से जुड़ी प्रदर्शनी भी देखी थी जो दिल्ली में सेना ने लगाई थी, और मैंने अपनी सेना के इतिहास के बारे में भी थोड़ा बहुत पढ़ा है। कृपया आप मेरी बात को सही अर्थ में समझें।

लोगों को देश के लिए जीना चाहिए, लोगों को देश के लिए मरना नहीं चाहिए, बशर्ते कोई गंभीर परिस्थिति न हो, जिसे टाला न जा सके। पर जब आप एक अप्राकृतिक सीमा की सुरक्षा करते हैं, तो बहुत सारे लोग बिना वजह मारे जाते हैं।

बेतुकी लकीरें

हम इसका गुणगान कर सकते हैं, ठीक है। जिन लोगों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, हमें उनका सम्मान करना चाहिए। ये सब ठीक है। लेकिन फिर भी, एक इंसान मर गया। हम इससे कितने भी अर्थ और भावनाएं जोड़ सकते हैं। लेकिन एक इंसान तो मर गया। जिस इंसान को मरना नहीं था, वो मर गया। ये अच्छी बात नहीं है।

हमने बहुत बेतुकी लकीरें खींच दी हैं। उनकी रखवाली करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि कोई नहीं जानता कि आखिर वो लकीर है कहां। मुझे यकीन है, आप बॉर्डर पर रहते हैं, फिर भी आपको नहीं पता कि असल में लकीर कहां है। क्योंकि इन लकीरों को ठीक से मार्क करने के लिए कोई भौगोलिक विशेषताएं नहीं हैं। शायद कुछ जगह आप कहेंगे कि ये नदी हमें बांटती है – ठीक है। ये आसान है। पर खासतौर पर पश्चिमी बॉर्डर इस तरह खींचा गया है कि कोई नहीं जानता कि लकीर कहां है। हर समय सब उसे धकेलने में लगे रहते हैं। सत्तर साल के दौरान, दोनों तरफ से कितने लोग जान गंवा चुके हैं। किसलिए? इस सीमाओं को सही तरह से खींचने के लिए हम वक्त ले सकते थे।

समाधान संभव है

लेकिन हम देश बनाने की जल्दी में थे। हम इतिहास का पोस्ट-मार्टम नहीं कर सकते। अब ये हो चुका है। पर कम से कम, अब, जहां भी इसका समाधान निकालना संभव हो, हमें निकालना चाहिए। पश्चिमी बॉर्डर का समाधान जल्दी निकलता नहीं दिखता। पर हमारे उत्तरी बॉर्डर का समाधान काफी हद तक संभव है अगर लोग सही नियत से बैठकर बात करें, तो हल निकलना संभव है, क्योंकि वहां हालात अलग हैं, बहुत अलग।

इसे सशस्त्र सेनाओं के हित के लिए और देश के हित के लिए करना चाहिए। हम इस पर इतना पैसा खर्च करते हैं, जबकि ये एक गरीब देश है जहां लगभग चालीस करोड़ लोगों को अब भी भरपेट खाना नहीं मिलता। सेनाओं पर इतना ज्यादा पैसा खर्च करना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या है।

तो इस खर्चे को कम करने का एक तरीका है। ये काम फौरन तो नहीं हो सकता – पर अगले दस साल में अगर हम अपनी सेनाओं को काफी छोटा और ज्यादा असरदार बनाने का प्लान करें, टेक्नोलॉजी से जुडी क्षमताओं की मदद से, तो मुझे लगता है कि ये आगे बढऩे का सही तरीका है। मेरे ख्याल से और कोई तरीका नहीं है।

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