ये खुशियां मेरी क्यों नहीं?
संसार का सबसे दुखी प्राणी हूं मैं, मेरे दोस्त के पास मुझसे बेहतर नौकरी है, पत्नी है, घर है, बच्चे हैं। हर समय तुलना.. ईष्र्या में सिर्फ मन नहीं जलता, तन-मन और जिंदगी खाक हो जाती है। दूर के ढोल सुहावने दिखते हैं और जो अपने पास है, अपने हाथ में है, उसका खुद नाश किए देते हैं। तो प्रश्न है कि ईष्र्या से कैसे बचें?ओशो ने बड़ी अच्छी बात कही थी—गनीमत है कि आदमी सिर्फ दूसरे आदमियों से ही ईष्र्या करता है, तुलना करता है। पेड़ों की हरियाली, मोर के पंखों की खूबसूरती और कोयल की आवाज से नहीं करता। प्रकृति की दूसरी तमाम नियामतें व्यक्ति को बेचैन नहीं करतीं। लेकिन अपने जैसे दूसरे व्यक्ति की हर चीज उसे अपने से बेहतर लगती है। ईष्र्या व्यक्ति के अंदर की एक सोच भर नहीं होती, वह जीने की एक प्रक्रिया बन जाती है। हर वक्त दिमाग में तुलना चलती है, उसके पास यह बेहतर क्यों? यह बुखार की तरह शरीर को जकड़ सोचने-समझने की शक्ति कुंद कर देती है। आत्म-विश्वास हाथ से छूटने लगता है और जिंदगी से बस शिकायतें ही शिकायतें रह जाती हैं। यह मानव स्वभाव है कि उसे दूसरों की तरक्की रास नहीं आती। उसे लगता है कि उसके अलावा बाकी सभी उससे बेहतर दशा में हैं। पर जिस समय व्यक्ति इस सोच को जिंदगी का सार बना लेता है, वह अपनी तरक्की खुद रोक देता है। उसकी ऊर्जा तुलना में जाया होने लगती है। उसे लगता है कि वह बेचारा है। वह अहसासे कमतरी से घिरने लगता है।
प्रसिद्ध फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में युवाओं की इसी प्रवृत्ति पर बड़ा सटीक कमेंट था। दो दोस्त उस वक्त बुरा महसूस करते हैं, जब उन्हें लगता है कि तीसरा फेल हो गया है। पर जब उन्हें पता चलता है कि वो तीसरा फेल नहीं हुआ, बल्कि प्रथम आया है, तब उनके दुखी होने की मात्रा बढ़ जाती है। जर्मनी के प्रसिद्ध चिंतक मार्क वॉल कहते हैं कि ईष्र्या के बिना जीवन जीना एक कला है, जो व्यक्ति को सीखनी पड़ती है। जिसने यह सीख लिया और अपनी जीवन पद्धति बना ली, उसकी जिंदगी आसान, सहज और आशा से पूर्ण हो जाती है।
ओशो ने ईष्र्या के संबंध में एक अर्थपूर्ण कहानी कही है। एक असंतुष्ट और ईष्र्यालु व्यक्ति को लगता है कि वह सबसे ज्यादा दुखी है। वह रोज ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे उसके कष्टों से मुक्ति दे दे, बदले में वह किसी और का कष्ट भोगने को तैयार है। आखिरकार एक दिन उन्होंने उस व्यक्ति से कह दिया कि वह अगले दिन अपने कष्टों की पोटली बनाकर सुबह मंदिर पहुंच जाए। अगले दिन खुशी-खुशी वह मंदिर पहुंचता है अपने कष्टों की पोटली लिए। लेकिन यह क्या? उसकी तरह ना जाने कितने व्यक्ति अपने-अपने कष्टों की पोटली सहित पहुंचे हुए हैं। ईश्वर कहते हैं—आप सब अपनी पोटली दीवार के किनारे रख दें। और जिसे जो पोटली सही लगे, उठा ले। उस व्यक्ति ने लपक कर वापस अपनी ही पोटली उठा ली। सिर्फ उसने नहीं, सबने ऐसा ही किया। ऐसा इसलिए, क्योंकि दूसरों के कष्टों की पोटली पर तो उनकी नजर पहली बार गई थी। दूसरों की पोटलियां भारी थीं। उनके कष्ट भी नए थे। अपने कष्ट तो परिचित थे। ज्यादातर खुद के बुलाए हुए थे।