साधो सब पर छाया संकट

साधो सब पर छाया संकट
रोज अखबार उठाकर देखें, तो कोई न कोई संकट आया रहता है। लगता है कि जैसे हम संकटों से चौतरफा घिरे हुए हैं। लोग सोचते हैं, कैसा जमाना आ गया है? पहले के लोग कितने खुश थे, शांत थे। 40 साल पहले किसी ने ओशो से यही सवाल पूछा था कि आज आदमी पर इतने संकट क्यों घिर आए हैं?
ओशो ने कहा कि मनुष्य खुद एक संकट है। मनुष्य का होना ही संकट है, क्योंकि मनुष्य एक बुद्धिमान और विकासमान प्राणी है। वह सदा बेचैन रहता है। यह बेचैनी उसके विकास का कारण बनती है। उसकी जो संभावना है, जो लक्ष्य हैं, उनकी पुकार उसे खींचती रहती है।
सभी पशु पूरे पैदा होते हैं, उनमें कोई अधूरापन नहीं है। कोई कुत्ता, कम कुत्ता नहीं होता। गाय जैसी है, वैसी ही आखिरी दम तक रहती है। मगर मनुष्य जब तक अपनी उन्नति न करे, जब तक अपने मन-बुद्धि को विकसित न करे, जब तक आत्मिक संतुष्टि न प्राप्त करे, तब तक मनुष्य कहलाने योग्य नहीं होता। उसे प्रकृति अधूरा पैदा करती है, बाकी काम मनुष्य को खुद ही पूरा करना है। और यही उसकी गरिमा भी है। उसके अंदर चेतना है। वह नर से नारायण हो सकता है, और नर से नीचे भी गिर सकता है।
इस सृष्टि में मनुष्य सबसे अधिक जीवित है। जीवित होने के मायने हैं- निरंतर ज्ञात से अज्ञात की ओर, परिचित से अपरिचित की ओर गति करता। मनुष्य की यह असीम स्वतंत्रता ही उसका संकट है, उसकी बेचैनी है। मनुष्य पर अस्तित्व ने बहुत कुछ दांव पर लगाया है। उससे जीवन की बहुत अपेक्षाएं हैं। इस संकट का रचनात्मक और सकारात्मक उपयोग जिन्होंने किया, वे संकट से उबर गए।

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