शिव इतिहास के नहीं,विश्वास के विषय हैं। वे इतिहास से परे,आस्था से जुड़े हैं।
वे स्वंयभू है,शाश्वत हैं,सनातन हैं,अज्ञेय हैं,अनादि हैं, अविनाशी,अनंत हैं।
जन्म,जरा,मृत्यु में वे नहीं बंधते।
वे स्वयं-उत्पन्न,स्वंय-पोषित,स्वंय-प्रगट,स्वंय-तुष्ट एवं आत्म-केन्द्रित हैं, वैरागी हैं। वे पुरूष हैं।
प्रकृति अथवा शक्ति, उन्हें सती एवं पार्वती के रूप में उन्हें,अपनी ओर आंखें खोल कर देखने अर्थात् सांसारिकता की ओर खींचने का प्रयास करती हैंं ताकि लोक का कल्याण हो सके।
वह उन्हें संन्यासी से गृहस्थ बनाने का प्रयत्न करती हैं, शिव से शंकर बनाने का उपक्रम करती हैं।
ऐतिहासिकता के दृष्टिकोण से शिव हमारे आदि देवों में से हैं, जिन्हें यहाँ आने वाली विभिन्न प्रजातियों द्वारा क्रमशः अपना लिया गया।पशुपति के रूप में,संभवतः वे सिंधु-घाटी सभ्यता में भी पूजित थे।
यही नहीं विश्व की अन्य सभ्यताओं में भी उनके किसी-न-किसी रूप में पूजित होने के संकेत मिलते हैं।
शिव समन्वय के प्रतीक हैं।अपने एकाकीपन में वे शिव हैं।
शक्ति के सानिध्य में वे शंकर होकर संसार से और अधिक सम्बद्ध एवं कल्याणकारी स्वरूप धारण करते हैं।