क्या आप जानते हैं ब्रह्मा के थे पांच मुख
एक बार अति प्राचीनकाल में सुमेरु पर्वत पर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता व ऋषिगण बैठे थे । उस समय ऋषियों ने ब्रह्माजी से पूछा—‘अविनाशी परम तत्त्व क्या है ?’ भगवान शिव की माया में मोहित होकर ब्रह्माजी अंहकार में भरकर आत्मप्रशंसा से बोले—‘मैं ही सारे जगत का कर्ता, धर्ता व हर्ता हूँ, मुझसे बड़ा कोई नहीं है ।’ सभा में उपस्थित विष्णुजी को उनकी आत्मप्रशंसा अच्छी नहीं लगी । उन्होंने स्वयं को जगत का कर्ता व परमपुरुष बताया । इस प्रकार ब्रह्मा व विष्णुजी में विवाद हो गया ।
जब सभी ने वेदों की राय जानीं तो उन्होंने शिव को ही परमतत्त्व बताया । इस पर ब्रह्मा और विष्णुजी ने वेदों पर बिगड़ते हुए कहा—‘भला, अशुभ वेषधारी, दिगम्बर, रात दिन शिवा के साथ रमण करने वाले शिव परमतत्त्व कैसे हो सकते हैं ?’ तब प्रणव ने भी मूर्तरूप धारणकर शिव को परमतत्त्व बताया । किन्तु इसे सुनकर भी ब्रह्मा व विष्णु का मोह दूर नहीं हुआ तो उस स्थान पर आकाश को छूने वाली एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई । उसे देखकर ब्रह्माजी पहले की तरह अहंकार में भरकर बोले—‘मुझसे डरो मत, तुम तो मेरे मस्तक से पैदा हुए थे । रोने के कारण मैंने तुम्हारा नाम ‘रुद्र’ रखा था । तुम मेरी शरण में आ जाओ ।’
ब्रह्मा को दण्डित करने के लिए भगवान शंकर ने क्रोध में भरकर अपने तेज से ‘भैरव’ नामक दिव्य पुरुष उत्पन्न किया और बोले—
‘काल भी तुमसे डरेगा, इसलिए तुम्हारा नाम ‘काल भैरव’ होगा । तुम काल के समान शोभायमान हो, इसलिए तुम्हारा नाम ‘कालराज’ होगा । तुम क्रोध में दुष्टों का मर्दन करोगे, इसलिए तुम्हारा नाम ‘आमर्दक’ होगा । भक्तों के पापों को दूर करने के कारण ‘पापभक्षण’ कहलाओगे । सबसे पहले तुम इस ब्रह्मा को दण्ड दो । सभी पुरियों में श्रेष्ठ मेरी जो मुक्तिदायिनी काशीपुरी है, आज से तुम वहां उसके अधिपति बनकर रहोगे ।’
भगवान शंकर की आज्ञा पाकर काल भैरव ने अपनी बायीं ऊंगली के नाखून से ब्रह्माजी के पांचवें मुख को काट डाला । (पहले ब्रह्माजी के पांच मुख थे) । ब्रह्मा-विष्णु भयभीत होकर शंकरजी के शतरुद्रिय मन्त्रों का जप करने लगे और उनका अंहकार नष्ट हो गया ।