आध्यात्मिक खोज – छू गया मुझे स्वयंसेवी लीला का अनूठा व्‍यक्तित्‍व

एक खोजी शेरिल सिमोन ने अपनी रोचक जीवन-यात्रा को ‘मिडनाइट विद द मिस्टिक’ नामक किताब में व्यक्त किया है। इस स्तंभ में आप उसी किताब के हिंदी अनुवाद को एक धारावाहिक के रूप में पढ़ रहे हैं। इस ब्लॉग में वे सद्‌गुरु की सहायक स्वयंसेवी लीला से अपनी मुलाक़ात के अनुभव साझा कर रही हैं।

हम कार से उतर ही रहे थे कि मैंने लीला के मिनीवैन की हेडलाइट्स से अपनी कार का रास्ता रोशन होते देखा। कौन कहता है कि योगियों को समय का अनुमान नहीं होता!

हालांकि लीला सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष की हैं पर वे चिरयौवन और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण लगती थीं। लंबे घने काले बालों, चमकती काली आंखों और दमकती त्वचा वाली अत्यंत सुंदर महिला। लीला को उन चीजों की जरा भी परवाह नहीं थी, जिनमें अधिकतर युवतियां डूबी रहती हैं। मैंने अक्सर उनको बिलकुल ढीले-ढाले कपड़ों में देखा है, जब मैंने इस बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने अपने खास बेफिक्र अंदाज में जवाब दिया कि उनके लिए फैशन नहीं आराम महत्वपूर्ण है।

एक बार जब मैंने सद्‌गुरु से कहा कि लीला को अपनी सुंदरता की तनिक भी परवाह नहीं लगती तो उन्होंने हंसकर कहा, ‘लोगों को अपनी सुंदरता का ज्ञान नहीं होता, इसलिए उनको दूसरों से निरंतर पुष्टि की जरूरत पड़ती है। अच्छा है न कि लीला की यह जरूरत खत्म हो चुकी है!’

लीला के तर्क से मिली नई दृष्टि

ऐसे कई मौके आये जब लीला के सहज तर्क ने मेरी सोच पर प्रश्नचिह्न लगा दिये। अपने मन की बात कहने का उनका तरीका बिलकुल सीधा, बेलाग और अक्सर हास्यपूर्ण होता था। वे अपने मन की बात बेबाकी के साथ कहने में जरा भी नहीं हिचकतीं।

जब मैंने पहले-पहल ईशा फाउंडेशन में स्वयंसेवी का काम संभाला तो मुझे कुछ ऐसे लोगों के साथ काम करना पड़ा, जो मुझे विशेष रूप से नापसंद थे। मुझे लगा कि वे छिछले थे और हर काम को ज्यादा मुश्किल, उलझा हुआ और जरूरत से ज्यादा रूखा बना रहे थे। अपना कारोबार शुरू करने के समय से ही हमेशा अपनी पसंद के सम्मानित, दिलचस्प लोगों के साथ काम कर के मैंने खुद को बिगाड़ लिया था। जब मैंने लीला से शिकायत की कि मैं ऐसे रूखे लोगों के साथ काम करने या उनके आसपास भी रहने की आदी नहीं हूं, तो बस उन्होंने इतना ही पूछा, ‘पुराने या नए?’

‘क्या मतलब?’ मैंने पूछा। बड़े सब्र से उन्होंने अपने सवाल को विस्तार दिया, ‘वे लोग ईशा के लिए नए हैं या काफी समय से सद्‌गुरु के साथ हैं?’ मुझे लगा कि यह एक रोचक अंतर है। सद्‌गुरु की शिष्या बनने के थोड़े ही समय में, मैंने खुद में कुछ वास्तविक परिवर्तन देख लिए थे। लीला के सवाल के बारे में सोचने पर मैं समझ पाई कि मुझे अच्छे न लगने वाले अधिकतर लोग ईशा के लिए नये थे, और वैसे ही जिन लोगों ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया था वे काफी समय से सद्‌गुरु के साथ थे।

योग अभ्यास के प्रमाण साफ़ दिख रहे थे

इस बारे में सोचते हुए मैंने अनुभव किया कि परिचय के थोड़े-से समय में ही मैं खुद देख पा रही थी कि ईशा के लोगों में कैसे परिवर्तन हो रहे हैं। एक बार मैंने किसी को कहते सुना था कि बौद्धों को देखकर बुद्ध को नहीं आंकना चाहिए। लेकिन जब मैंने देखा कि कुछ लोग मुझसे परिचय के समय कैसे थे और ईशा की क्रियाओं के अभ्यास के बाद कितना बदल गये हैं, तब मैंने सोचा कि वे सद्‌गुरु और उनकी सिखाई योग टेक्नोलॉजी के कितने अच्छे प्रमाण हैं। एक बार मैंने सद्‌गुरु को कहते सुना था कि उनके पास आने के समय कोई कैसा भी हो उनको कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनके अनुसार ‘यहां रहने के बाद उनमें निश्चित रूप से बदलाव आएगा। वे चाहे जैसे हों, अगर उनके अंदर खोज है तो यहां अवश्य सुंदर व्यक्ति बन जायेंगे।’ इस संदर्भ में एक बार मैंने सद्‌गुरु को यह भी कहते सुना था कि एक अच्छा माली न तो कभी मिट्टी की हालत के बारे कोई शिकायत करता है और न ही कमजोर बीजों के बारे में, बल्कि वह ऐसा कुछ करने की कोशिश करता है कि पौधे अच्छे उगें और फूल खिलें। इसी से माली की योग्यता का पता चलता है।

कैसे लोगों के साथ काम करना बेहतर है?

लीला ने मुझे बताया कि जब उन्होंने पहले-पहल ईशा फाउंडेशन में स्वयंसेवा शुरू की थी तब वे ऐसे लोगों को ढूंढ़ती थीं जो उनको बिलकुल पसंद न आएं और फिर उनके साथ काम करती थीं। ‘क्यों?’ मैंने पूछा। उन्होंने जवाब दिया, ‘मैं अपनी सारी सीमाओं और कमियों से मुक्त होना चाहती थी और वे मुझे मेरी कमियां दिखला रहे थे।’

मैं पिछले तीस साल से जिस तरह जी रही थी, उसके मुकाबले यह एक बिलकुल अलग तरीका था। कितनी हास्यास्पद बात थी कि मैं खुद को मनुष्य की संभावनाओं-क्षमताओं का अध्ययन करने वाली छात्रा मानती थी और मैंने सोचा तक नहीं कि सीमाएं मनुष्य को छोटा कर देती हैं। मैं अपने आराम का बहुत ध्यान रखती थी। लीला ने मुझे कई बार बताया है कि थोड़ा-बहुत कष्ट झेलना अच्छा होता है।

लीला का हास्य-भाव बहुत उम्दा है और हम साथ होने पर हंसते ही रहते हैं। फिर भी मुझे समझ नहीं आता कि वे सद्‌गुरु के साथ कैसे ताल मिला लेती हैं। सद्‌गुरु की रफ्तार अतिमानव जैसी है। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि कोई व्यक्ति उन जैसा रोजमर्रा के काम निभा भी सकता है। यदि प्रतिबंधों-सीमाओं के न होने का कोई उदाहरण देखना हो तो वह है सद्‌गुरु का जीवन ‐ जाने कितना कुछ अपने में समाए हुए। अधिकतर लोग किसी शहर में जितनी आसानी से घूम-फिर लेते हैं, उससे कहीं अधिक आसानी से वे सारी दुनिया को मापते रहते हैं।

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