मैं कौन हूं?
“मैं कौन हूं?” इसका कोई उत्तर नहीं है; यह उत्तर के पार है। तुम्हारा मन बहुत सारे उत्तर देगा। तुम्हारा मन कहेगा, तुम जीवन का सार हो। तुम अनंत आत्मा हो। तुम दिव्य हो,’ और इसी तरह के बहुत सारे उत्तर। इन सभी उत्तरों को अस्वीकृत कर देना है : नेति नेति–तुम्हें कहे जाना है, “न तो यह, न ही वह।”
जब तुम उन सभी संभव उत्तरों को नकार देते हो, जो मन देता है, सोचता है, जब प्रश्न पूरी तरह से बिना उत्तर के बच जाता है, चमत्कार घटता है। अचानक प्रश्न भी गिर जाता है। जब सभी उत्तर अस्वीकृत हो जाते हैं, प्रश्न को कोई सहारा नहीं बचता, खड़े होने के लिए भीतर कोई सहारा नहीं बचता। यह एकाएक गिर पड़ता है, यह समाप्त हो जाता है, यह विदा हो जाता है।
जब प्रश्न भी गिर जाता है, तब तुम जानते हो। लेकिन वह जानना उत्तर नहीं है : यह अस्तित्वगत अनुभव है।
मैं कौन हूं?
एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर—दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरो की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खडे थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे है। आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे है। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोडी देर तक उनके कन्धे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किन्तु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अन्तत: उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’
मैं क्या कहता? उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं। प्रेम को न खोजकर जो परमात्मा को खोजता है.
एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर—दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरो की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खडे थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे है। आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे है। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोडी देर तक उनके कन्धे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किन्तु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अन्तत: उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’
मैं क्या कहता? उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं। प्रेम को न खोजकर जो परमात्मा को खोजता है.