भगवान कृष्ण को भगवद गीता में सर्वोच्च देवता क्यों कहा जाता है?

भगवान कृष्ण उनकी वरिष्ठता स्वयं कहते है।
भगवान कृष्ण बार बार अर्जुनको समझाते हुए कहते है कि वे ही उच्चतम भगवान है, उन्हीका आश्रय और उन्हींकी भक्ति सभीमें प्रधान है। इसके निम्मिलिखित प्रमाण है:

  • यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
    भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥
     भगवद्गीता ९.२५
    देवताओं के पूजक देवताओं के साथ जन्म लेते है। पितरपूजक पितरों के साथ जाते हैं। भूतों का यजन करने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।
  • अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
    न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
     भगवद्गीता ९.२४
    क्योंकि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी हूँ परन्तु जो मुझे तत्त्वतः नहीं जानते उनका निश्चितरूपसे पतन होता है।
  • येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
    तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥
     भगवद्गीता ९.२३
    हे कुन्तीनन्दन, जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक मुझे छोड़ अन्य देवताओंका पूजन करते हैं; वेभी मेरी ही पूजा करते तो हैं किन्तु यह पूजन अविधिपूर्वक और अवैदिक है।
  • सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
     भगवद्गीता १८.६६
    सभी धर्मोंका आश्रय छोड़कर तुम केवल मेरी शरणमें आ जाओ। मैं तुम्हे सभी पापोंसे मुक्त कर दूँगा। घबराओं मत।

भगवान कृष्णका विश्वरूप उनकी वरिष्ठता सिद्ध करता है।
भगवान कृष्णकें विश्वरूपमें अन्य सारे देवता थे। उस रूपकी कोई सीमा नही थी। वह अमर्याद था। सभी देवताओंने उसी रूपके भीतर उस अनंत विश्वपुरुष कृष्णकी शरण ली थी। इससे कृष्णका सर्वोच्च स्थान सिद्ध होता है। इसके निम्मिलिखित प्रमाण है:

  • पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विवनौ मरुतस्तथा।
    बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याऽश्चर्याणि भारत॥
     भगवद्गीता ११.१६
    हे भारत, मुझमें आदित्यों, वसुओं, रुद्रों तथा अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों को देखो तथा और भी अनेक इसके पूर्व कभी न देखे हुए आश्चर्यों को देखो।
  • अमी हि त्वां सुरसङ्घाः विशन्ति
    केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
    स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः
    स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः॥ 
    भगवद्गीता ११.२२
    अर्जुनने कहाँ, “ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और वे भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपही की स्तुति कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धों के समुदाय स्वस्तिवाचन करते हुए उत्तम स्तोत्रों द्वारा केवल आपकाही वर्णन कर रहे हैं।”
  • रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
    विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
    गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा
    वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥
     भगवद्गीता ११.२२
    रुद्रगण, आदित्य, वसु और साध्यगण, विश्वेदेव तथा दो अश्विनीकुमार, मरुद्गण और उष्मपा, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धगणों के समुदाय ये सब ही विस्मित होते हुए आपकोही देख रहे है।

भगवान कृष्णकीं वरिष्ठता अर्जुनका निष्कर्ष है।
भगवान कृष्णकी दिव्यता जानकर अर्जुन उनसे क्षमा माँगता है क्योंकि पूर्वकालमें उसने उनकी उच्चता न जानते हुए उनसे मित्र जैसा बरताव किया। कृष्णहि सबके स्वामी है, सभीके हृदयके निवासी है, सभीमें श्रेष्ठ और विश्वके आत्मान् है यही अर्जुनका निष्कर्ष था।

  • परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ ।
    पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥
    आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
    असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ 
    भगवद्गीता १०.१२.१३
    अर्जुन बोले, “आप साक्षात् परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, सनातन है। आपको सब ऋषिगणों, दिव्य पुरुषों और देवों के भी आदिदेव कहते है। आपही अजन्मा और सर्वव्यापी कहे जाते हैं। देवर्षि नारद, असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी आपके लिए वही कहते हैं जो अपनेही स्वयं मुझे बताया है।”
  • त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
    त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
    त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता ।
    सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥ भगवद्गीता ११.१८
    अर्जुन बोले, “आप ही जानने योग्य परम अक्षर हैं, आप ही इस विश्व के परम आश्रय हैं, आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं, और आप ही सनातन पुरुष हैं। यही मेरा मत है।

भगवान कृष्णकीं वरिष्ठता संजयकाभी निष्कर्ष है।
भगवान भगवद्गीताके आखरी भागमें संजय कहता है कि जिस पक्षमें कृष्ण है उस पक्षकी विजय निश्चित है। ऐसा कहकर वह धृतराष्ट्रके समक्षही युद्धके अंतसे पहलेही युद्धका निर्णय घोषित करता है। अर्जुन और कृष्णका संवाद सुन, आश्चर्ययुक्त भावसे वह भगवान कृष्णके वरिष्ठताका आस्वादन करता है।

  • तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
    विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः॥
     भगवद्गीता १८.७७
    हे राजन् भगवान् श्रीकृष्णके उस अत्यन्त अद्भुत रूपको याद करकनेसे मुझे अत्यंत आश्चर्य हो रहा है और मैं बारबार हर्षित हो रहा हूँ।
  • यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
    तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
     भगवद्गीता १८.७८
    जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री? विजय? विभूति और ध्रुव नीति है? ऐसा मेरा मत है।

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