अन्य देवताओं की तुलना में भगवान श्रीकृष्ण को क्यों अधिक पसन्द किया जाता है, इसके पक्ष में मैं यहां उनके चरित्र की कुछ अद्भुत विशेषताओं का वर्णन कर रही हूँ—
आनन्द अवतार—भगवान श्रीकृष्ण का अवतार आनन्द अवतार है । उनकी व्रज में बाललीलाएं इतनी सरस व चंचलता लिए हुए हैं कि कठोर से कठोर हृदय भी बरबस उनकी तरफ खिंच जाता है । श्रीकृष्ण व्रज में तनिक से माखन के लिए कभी नृत्य करते हैं तो कभी याचक बनने में भी संकोच नहीं करते हैं—
ब्रज में नाचत आज कन्हैया मैया तनक दही के कारण।
तनक दही के कारण कान्हां नाचत नाच हजारन।।नन्दराय की गौशाला में बंधी हैं गैया लाखन।
तुम्हें पराई मटुकी को ही लागत है प्रिय माखन।।गोपी टेरत कृष्ण ललाकूँ इतै आओ मेरे लालन।
तनक नाच दे लाला मेरे, मैं तोय दऊँगी माखन।।
पूर्ण अवतार—भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण अवतार हैं, और दूसरे जितने अवतार हैं, वे भगवान के अंशमात्र या कलामात्र होते हैं परन्तु भगवान श्रीकृष्ण स्वयं परिपूर्णतम हैं ।
परम सुन्दर–भौतिक दृष्टि से श्रीकृष्ण का शरीर जितना सुन्दर, जितना बलिष्ठ, जितना सुगठित है, उतना सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक न किसी का हुआ और न आगे किसी का होने की सम्भावना है। श्रीमद्भागवत में कंस की रंगशाला में जाने पर श्रीकृष्ण के शरीर का जो वर्णन हुआ है, वह श्रीकृष्ण के शरीर की पूर्णता का द्योतक है। श्रीकृष्ण पहलवानों को वज्र के समान दिख रहे थे और स्रियों को कामदेव के समान। बड़े-बड़े लोग उन्हें श्रेष्ठ पुरुष की भांति देख रहे थे और माता-पिता की दृष्टि में वे नन्हें से शिशु मालूम पड़ रहे थे। ग्वालों की दृष्टि में वे अपने आत्मीय थे और दुष्टों की दृष्टि में दण्ड देने वाले शासक; कंस उन्हें मृत्यु के रूप में देख रहा था और योगी लोग परम तत्व के रूप में। अज्ञानी लोग उनके विराट शरीर को देखकर भयभीत हो रहे थे और प्रेमी भक्त अपने प्रभु के रूप में देखकर कृतार्थ हो रहे थे। इस प्रकार उनके शरीर की पूर्णता के कारण सब लोग अपने-अपने भावानुसार उनका दर्शन विभिन्न रूप (रौद्र, अद्भुत, श्रृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, वीभत्स, शान्त, प्रेममय) में करते थे।
सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण का जीवन सोलह कलाओं से पूर्ण है। महाभारत में वर्णन आता है कि जब महाभारत युद्ध के समय अर्जुन के घोड़े घायल हो जाते या थक जाते तब अर्जुन तो शिविर में जाकर विश्राम करने लगते, किन्तु श्रीकृष्ण घोड़ों की मालिश करते और जहां चोट लगी होती, वहां मरहम-पट्टी करते। इससे सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण आयुर्वेद के महान ज्ञाता थे। वे केवल मनुष्यों की ही नहीं बल्कि पशुओं की भी चिकित्सा में निपुण थे। उनके रथ-संचालन कौशल ने ही अर्जुन की युद्ध में रक्षा की और शल्य जैसे कुशल रथ-संचालक भी उनके सामने नहीं ठहर पाते थे। इन्होंने युद्ध में समय-समय पर पाण्डवों को नीति-शिक्षा देकर महान विपत्तियों से बचाया। श्रीकृष्ण को युद्धकला में भी निपुणता प्राप्त थी। जरासन्ध ने तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर सत्रह बार मथुरा पर चढ़ाई की, लेकिन मथुरा का एक आदमी भी नहीं मरा और बलराम व श्रीकृष्ण ने उसकी सेना का संहार कर दिया। मल्लविद्या में श्रीकृष्ण इतने निपुण थे कि देखने में नन्हें से होने पर भी मुष्टिक-चाणूर जैसों का कचूमर ही निकाल दिया। श्रीकृष्ण ने इतनी जल्दी द्वारका की रचना करवायी थी कि सब लोग चकित रह गए। श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर का जो सभागार बनवाया था उसमें जल-थल का भ्रम हो जाता था। यह इंगित करता है कि श्रीकृष्ण को शिल्पकला और स्थापत्यकला का कितना ज्ञान था। श्रीकृष्ण का क्रोधित कालिया नाग के भयानक फणों पर नृत्य करना तो नृत्यकला की पराकाष्ठा है जिसमें अद्भुत शरीर साधना, चरण-लाघव व श्रीकृष्ण का विचित्र मनोयोग देखने को मिलता है। गोपियों के साथ रासमण्डल का नृत्य भी अत्यन्त निराला है। श्रीकृष्ण संगीतशास्त्र के महान आचार्य हैं। श्रीकृष्ण का वेणुवादन तो आत्मा का संगीत है। वेणु के सात छिद्रों में से छ: छिद्र तो भगवान के ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य की प्राणवायु से पूरित हैं। सातवां छिद्र स्वयं भगवान के निर्विकार स्वरूप का द्योतक है। श्रीकृष्ण का वाक्-कौशल भी सर्वश्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण जब पांडवों की ओर से संधि प्रस्ताव लेकर कौरवों की सभा में गए तो उनको सुनने के लिए दूर-दूर से ऋषि-मुनिगण पधारे।
योगेश्वर व जगद्गुरु श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण ने कंस के कारागार में जन्म लेने से लेकर प्रभास के महाप्रयाण तक जो कुछ भी किया, सब लोकहित हेतु किया। यही कारण है कि श्रीकृष्ण योगियों के भी योगी अर्थात् योगीराज हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने अत्यन्त गुह्य ज्ञान का उपदेश दिया है। गीता में ज्ञान, भक्ति व कर्म का अद्भुत समन्वय है।
निष्काम कर्मयोगी श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण के जीवन में कर्म की पूर्णता भी दृष्टिगोचर होती है। साधुओं का परित्राण, दैत्यों का संहार, धर्म की स्थापना, अधर्मका नाश आदि मनुष्य के हित के लिए जिन भी कार्यों की आवश्यकता थी, वे सब श्रीकृष्ण के जीवन में पूर्णत: पाये जाते हैं। किसी भी अच्छे कार्य को वे सहज ही स्वीकार करते हैं। न उन्हें मान या गौरव का बोध होता है और न ही अपमान या लज्जा का। पाण्डवों के राजसूय-यज्ञ में बड़े-बूढ़े ज्ञानी, ऋषि-मुनियों तथा भीष्म आदि गुरुजनों के सामने वे अपनी अग्रपूजा स्वीकार करते हैं और उसी यज्ञ में अतिथियों के चरण धोने व जूठी पत्तलें उठाने का कार्य भी करते हैं। महाभारत के युद्ध में एक तरफ वे पाण्डवों के युद्धनीति के निर्देशक हैं वहीं वे अर्जुन के रथ पर लगाम-चाबुक लेकर घोड़े हांकते हैं।
आदर्श गृहस्थ श्रीकृष्ण–भगवान श्रीकृष्ण ने जब प्राग्ज्यौतिषपुर के भौमासुर को मारकर उसके द्वारा हरण की हुई सोलह हजार राजकुमारियों पर दया करके अकेले ही उनसे विवाह कर लिया और यह बात जब नारदजी ने सुनी, तब उन्हें भगवान की गृहचर्या देखने की बड़ी इच्छा हुई। नारदजी द्वारका आये। द्वारका में श्रीकृष्ण के अन्त:पुर में सोलह हजार से अधिक बड़े सुन्दर महल थे। नारदजी एक महल में गए। वहां भगवान रुक्मिणीजी के समीप बैठे थे और रुक्मिणीजी चंवर से हवा कर रही थीं। नारदजी को देखकर भगवान ने उनकी पूजा की, उनके चरण धोकर चरणामृत सिर चढ़ाया और फिर पूछा–देवर्षि ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ। नारदजी ने कहा–’आप ऐसी कृपा कीजिए कि मैं जहां भी रहूँ, आपके चरणों के ध्यान में ही लीन रहूँ।’ इसके बाद नारदजी एक-एक करके सभी महलों में गए। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी जगह उनका स्वागत किया। नारदजी ने देखा–कहीं श्रीकृष्ण गृहस्थ के कार्य कर रहे हैं, कहीं हवन कर रहे हैं, कहीं देवाराधन कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मणों को भोजन करा रहे हैं, कहीं यज्ञ, कहीं संन्ध्या तो कहीं गायत्री जप कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मणों को गौओं का दान कर रहे हैं। कहीं पर देवताओं का पूजन तो कहीं गुरुजनों की सेवा कर रहे हैं। नारदजी ने भगवान से कहा–’भगवन् ! आप सर्वत्र विराजते हैं। यही आपकी लीला विभूति है। आपकी योगमाया ब्रह्म आदि के लिए भी अगम्य है परन्तु आपके चरणों की सेवा करने के कारण हम उसे जान गए हैं। अब आज्ञा दीजिए कि आपकी पावन लीला को मैं त्रिलोकी में गाता हुआ विचरण करता रहूँ।’
यही कारण हैं कि भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र सम्पूर्ण विश्व को अपनी तरफ आकर्षित करता है ।