भगवान श्रीकृष्ण की पत्नियां सत्यभामा और रुक्मिणी थीं । सत्यभामा सत्राजित की पुत्री थीं जिन्होंने श्रीकृष्ण पर स्यमन्तकमणि चुराने का झूठा आरोप लगाया था और अपने उसी अपराध के मार्जन के लिए अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण से किया था । रुक्मिणीजी विदर्भराजकुमारी थीं । सत्यभामा और रुक्मिणीजी ने अपने लिए श्रीकृष्ण से प्यार किया इसलिए कहीं-न-कहीं उन्हें श्रीकृष्ण की पत्नी होने का गर्व भी हुआ । भगवान श्रीकृष्ण ने उनके गर्व का हरण भी किया ।
इस सम्बन्ध में एक कथा है–एक बार सूर्यग्रहण के अवसर पर समस्त व्रजवासी–नन्द, यशोदा, श्रीराधा एवं गोपियां कुरुक्षेत्र में स्नान के लिए गए। इधर द्वारकाधाम से श्रीकृष्ण भी अपनी समस्त पटरानियों व द्वारकावासियों के साथ कुरुक्षेत्र पहुंचे। रुक्मिणीजी को श्रीराधा के दर्शनों की सदा इच्छा रहती थी। रुक्मिणीजी आदि पटरानियों ने श्रीराधा का खूब आतिथ्य-सत्कार किया। रुक्मिणीजी श्रीराधा को रात्रि विश्राम के समय स्वयं अपने हाथों से सोने के कटोरे में मिश्री मिलाया हुआ गरम दूध पिलाया करती थीं। एक दिन विश्राम करते समय जब रुक्मिणीजी श्रीकृष्ण के चरण दबा रहीं थीं तो उन्हें श्रीकृष्ण के चरणों में छाले दिखे। वे आश्चर्य में पड़ गयीं और श्रीकृष्ण से छाले पड़ने का कारण बताने का अनुरोध करने लगीं। तब श्रीकृष्ण ने कहा–’श्रीराधा के हृदयकमल में मेरे चरणारविन्द सदा विराजमान रहते हैं; उनके प्रेमपाश में बंधकर वह निरन्तर वहीं रहते हैं। वे एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते। रुक्मिणीजी ! आज आपने उन्हें कुछ अधिक गर्म दूध पिला दिया है, वह दूध मेरे चरणों पर पड़ा जिससे मेरे चरणों में ये फफोले पड़ गए।’
श्रीराधिकाया हृदयारविन्दे
पादारविन्दहि विराजते मे। (श्रीगर्गसंहिता)
श्रीरुक्मिणी आदि समस्त पटरानियां श्रीराधा की अनन्य कृष्णभक्ति देखकर अत्यन्त प्रभावित हो गयीं और सभी पटरानियां आपस में कहने लगीं–’श्रीराधा की श्रीकृष्ण में प्रीति बहुत ही उच्चकोटि की है। उनकी समानता करने वाली भूतल पर कोई स्त्री नहीं है।’ इस प्रकार श्रीराधा के हृदय में कृष्ण और कृष्ण के हृदय में श्रीराधा का निवास है।
श्रीराधा का जीवन कृष्णमय था। ‘तत्सुखसुखित्वम्–प्रियतम श्रीकृष्ण के सुख में ही अपना सुख मानना।’ वे कहती हैं कि कृष्ण विरह में यदि मेरा तन पंचतत्त्वों में विलीन हो जाय तो मेरी इच्छा यह है कि मेरे शरीर का जलतत्त्व वृन्दावन के किएं-तलाबों में विलीन हो जाए, मेरा अग्नितत्त्व उस दर्पण के प्रकाश में मिल जाए जिसमें मेरे प्रियतम अपना स्वरूप निहारते हों। पृथ्वीतत्व उस मार्ग में मिल जाए, जिस मार्ग से मेरे प्राणाधार आते-जाते हों; नन्दनन्दन के आंगन में मेरा आकाशतत्त्व समा जाय तथा तमाल के वृक्षों की वायु में मेरा वायुतत्त्व विलीन हो जाए। मैं विधाता से बार-बार प्रार्थना कर यही वर मांगती हूं।
श्रीराधा का भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा है जिनमें रमण करने के कारण वे राधारमण और आत्मारामकहे जाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–’जैसे आभूषण शरीर की शोभा है, उसी प्रकार तुम मेरी शोभा हो। राधा के बिना मैं नित्य ही शोभाहीन केवल निरा कृष्ण (काला-कलूटा) रहता हूँ, पर राधा का संग मिलते ही सुशोभित होकर ‘श्री’ सहित कृष्ण–श्रीकृष्ण बन जाता हूँ। राधा के बिना मैं क्रियाहीन और शक्तिशून्य रहता हूँ; पर राधा का संग मिलते ही वह मुझे क्रियाशील (लीलापरायण), परम चंचल और महान शक्तिशाली बना देता है।’ जहां भी कृष्ण के साथ श्री का प्रयोग होता है, वहां श्रीराधाजी विद्यमान रहती हैं।
मीरा श्रीकृष्ण की सबसे बड़ी भक्त थीं । बचपन में ही श्रीकृष्ण की मूर्ति देखकर उन्हें अपना पति मान लिया और उनके लिए सारा राजपाट तक छोड़ दिया । राणाजी का भेजा हुआ विष भी चरणामृत समझकर पान कर लिया और मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई कहते हुए उन्हीं में समा गईं ।
इसीलिए श्रीकृष्ण की भक्ति में राधा और मीरा का त्याग सबसे उच्चकोटि का है ।