जब युधिष्ठिर ने दुर्योधन और शकुनि के साथ पासा खेला तो कृष्ण ने पांडवों की रक्षा क्यों नहीं की?

राजसूय यज्ञ के अवसर पर दुर्योधन को अतिथि राजाओं द्वारा लाए गए उपहार स्वीकार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। तब दुर्योधन ने पांडवों की सम्पन्नता व शक्ति अपनी आँखों से देखी, और वो ईर्ष्या से झुलस गया। युधिष्ठिर को खंडवप्रस्थ के उजाड़ खंडर देकर व हस्तिनापुर से निकलवाकर वो बहुत प्रसन्न हुआ था, किन्तु २०-२५ वर्षों में पांडवों ने खंडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ बना दिया, व युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट। यह देख दुर्योधन का लालच व ईर्ष्या दोनों जाग उठे। यज्ञ समाप्त होने के पश्चात सभी अतिथिगण लौट गए, किन्तु पांडवों की सम्पन्नता देखने के लिए दुर्योधन रुक गया। एक दिन युधिष्ठिर की मायासभा में घूमते हुए वो कभी एक जलाशय में गिर गया, कभी एक दीवार को दरवाज़ा समझ उससे जा टकराया! इस पर भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव उसपर हँसे थे, व वो अपमान व क्रोध का घूँट पीकर रह गया था। हस्तिनापुर लौट कर वो उदास रहने लगा क्योंकि पांडवों की समृद्धि व ख़ुशहाली उसे रास नहीं आयी थी। वो किसी भी हाल में इंद्रप्रस्थ हड़पना चाहता था। अपनी चाटुकार मंडली, यानि कर्ण, शकुनि व दुशासन से मंत्रणा कर उसने निष्कर्ष निकाला कि पांडवों को युद्ध में तो परास्त नहीं किया जा सकता, किन्तु युधिष्ठिर जैसे नौसीखिए व अकुशल खिलाड़ी को द्यूत में हराया जा सकता है।

फिर दुर्योधन ने ज़िद कर के धृतराष्ट्र को द्यूत का निमंत्रण भेजने पर विवश किया। भीष्म, द्रोण, कृप व विदुर, सभी इसके विरोध में थे किन्तु धृतराष्ट्र आँखों से अधिक पुत्रमोह में अंधा था। युधिष्ठिर यह निमंत्रण स्वीकार करने को विवश हो जाए इसलिए यह निमंत्रण धृतराष्ट्र द्वारा भेजा गया उसकी ओर से, व इसे लेकर गए विदुर। ऐसे में युधिष्ठिर, जो सभी बड़ों का आदर करते थे व धृतराष्ट्र को बहुत मान देते थे, इस निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकते थे, हालाँकि वो समझ गए थे कि यह कोई चाल है। किन्तु युधिष्ठिर को विश्वास था कि भीष्म व गुरूजनो के रहते कुछ ग़लत या अधर्म नहीं हो पाएगा।

तो जो युधिष्ठिर को द्यूत खेलने के लिए दोषी मानते हैं, वो देखें कि युधिष्ठिर की ना तो मंशा ग़लत थी और ना आरम्भ में उनकी सोच में कोई विकृति थी। इसके विपरीत दुर्योधन व उसकी मंडली का ध्येय ही षड्यंत्र व अधर्म था।

अब कृष्ण ने उनका साथ क्यों नहीं दिया, इसके दो स्पष्ट कारण हैं।

  1. कृष्ण उस समय ना इंद्र्प्रस्थ में थे, ना हस्तिनापुर में, और ना द्वारका में। राजसूय यज्ञ के दौरान कृष्ण की अनुपस्थिति का फ़ायदा उठा शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण कर दिया था, जिसे प्रद्युमण व अन्य योद्धाओं ने विफल किया। अतः जब युधिष्ठिर के पास द्यूत का निमंत्रण आया, उस समय कृष्ण शाल्व की नगरी पर आक्रमण कर उससे युद्ध कर रहे थे। कृष्ण ने स्वयं स्वीकार किया कि यदि वो द्वारका में होते और उन्हें द्यूत क्रीड़ा का समाचार मिल जाता, तो वो बिना निमंत्रण के ही हस्तिनापुर पहुँच जाते व सबको समझाते, और द्यूत नहीं होने देते।
  2. युधिष्ठिर एक वयस्क थे व सम्राट भी। अपने निर्णय स्वयं लेने में वो सक्षम भी थे, व अपने लिए निर्णयों के परिणामों के ज़िम्मेदार भी। यदि कृष्ण उन्हें बचा लेते तो उन्हें अपनी ग़लती का एहसास कैसे होता, व कैसे सबक़ मिलता? द्यूत में उनका व्यवहार हम सबके लिए एक सबक़ है, की जब इतने विद्वान, बुद्धिमान व धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर की बुद्धि द्यूत के नशे में भ्रष्ट हो सकती है, तो हम सबको इस व्यसन से सावधान रहना चाहिए। जो भी व्यसन मनुष्य का विवेक नष्ट कर उसे इतना गिरा देता है कि उसे सम्पत्ति व भाई में अंतर ही दिखाई ना दे, उससे दूर रहना चाहिए।

द्यूत के नशे में युधिष्ठिर ने अपनी वो सम्पत्ति दाँव पर लगायी, जो उनके भाइयों ने अपने परिश्रम व पुरुषार्थ से अर्जित की थी। उन्होंने उस राज्य को दाँव पर लगाया, जो उनपर आश्रित था व जिसके वो पालक व पिता समान थे। उन्होंने उन भाइयों को दाँव पर लगाया, जो उनके लिए अपने प्राण भी दे सकते थे व जिनमें युधिष्ठिर के अपने प्राण बसते थे। उन्होंने उस पत्नी को दाँव पर लगाया जिसे वो अपनी निकटतम मित्र मानते थे, जो उनकी भाग्यलक्ष्मी थी व जिसके आने से उनके भाग्य का सूर्य तेज़ी से उदय हुआ था। जब उन्होंने ये सब ग़लतियाँ कीं, तो उनका परिणाम तो उन्हें झेलना ही पड़ता। उनके भाइयों ने उन्हें रोका नहीं, इसलिए परिणाम उन्होंने भी भुगता। अपने कर्म का फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। भगवान ने मनुष्य को सही व ग़लत में अंतर करने के लिए विवेक दिया है, सही क्या है व ग़लत क्या है यह भी बताया है, किन्तु करना क्या है यह मनुष्य स्वयं चुनता है। और जो वो करता है वैसा ही फल पाता है। तो जब युधिष्ठिर ने अपना रास्ता स्वयं चुना तो उसपर तो उन्हें चलना ही पड़ता। कृष्ण का उन्हें बचाना भगवान के अपने नियमों के विरुद्ध होता। गीता के उपदेश देने के पश्चात कृष्ण ने अर्जुन से भी यही कहा, कि मैंने तुम्हें जो बताना था बता दिया, अब करना क्या है इसका निर्णय तुम स्वयं करो।

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