श्रेष्ठता मात्र शस्त्र विद्या जानने से, या गुरु भक्ति करने से, या दान पुण्य करने से नहीं सिद्ध होती। एक मनुष्य श्रेष्ठ बनता है अपने सभी गुणों से, केवल एक-दो से नहीं।
अर्जुन को श्रेष्ठ कहने के कई कारण थे। अर्जुन को प्राचीन ऋषि नर का अवतार माना गया है। नर व नारायण दो भाई थे जिन्होंने अपनी इंद्रियों व अपनी सभी इछाओं पर विजय प्राप्त की थी। दानव सहस्त्रकवच से इनका युद्ध भी मानव कल्याण के लिए था, स्वयं अपने लिए नहीं। ऐसे श्रेष्ठ मनुष्य का दूसरा जन्म थे अर्जुन।
अर्जुन का समस्त जीवन ही निष्काम कर्मयोग की साधना है। वो क्षत्रिय थे, इसलिए युद्ध करना उनका कर्म था। किन्तु एक उत्तम योद्धा बनने में भी उनकी प्रतिस्पर्धा किसी और से नहीं, स्वयं से थी। उनका लक्ष्य सीखकर श्रेष्ठ होना था, ना की किसी और से श्रेष्ठ होना। यह एक बहुत बड़ा अंतर था उनमें व कर्ण में। उन्होंने युद्ध के माध्यम से जो भी जीता, वो सब अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर को अर्पण कर दिया। अपने लिए कुछ नहीं रखा। जब दान किया, तो उसके बदले में अपने लिए कुछ नहीं लिया। उन्होंने युद्ध में गंधर्व अंगरपर्ण को जीवन दान दिया। उसके बहुत आग्रह करने पर भी बदले में कुछ नहीं लिया। वो अर्जुन को अपने अश्व व विद्या देना चाहता था, किन्तु अर्जुन ने ये तब ग्रहण किए जब उसने अर्जुन से उनका आगणेयस्त्र लिया, जीवनदान के बदले नहीं। दानव मय को उन्होंने जीवनदान दिया, और मय के बहुत आग्रह करने पर उससे कहा की वो युधिष्ठिर के लिए सभागृह का निर्माण करे, अपने लिए कुछ नहीं। उन्होंने किसी के जीवन को अपनी प्रतिज्ञा से अधिक महत्व दिया, और ब्रह्मचर्य व्रत लेने के पश्चात भी ऊलुपि का अनुरोध स्वीकार किया उनकी प्राण रक्षा के लिए। यहाँ उन्होंने भीष्म को धर्म में परास्त कर दिया, जिन्होंने अम्बा के सम्मान व जीवन से अधिक महत्त्व अपनी प्रतिज्ञा को दिया था। यही बात कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में भीष्म को समझाई थी, स्वयं शस्त्र ना उठाने की अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर।
महाभारत का युग स्त्री-प्रधान नहीं था, और ऐसे युग में अर्जुन नारी का सम्मान करना, उसकी इच्छाओं का आदर करना, उसे बराबरी का दर्जा देना- ये सब बख़ूबी जानते थे। कृष्ण व अर्जुन अपने समय के feminists थे। अर्जुन द्रौपदी के प्रियतम ऐसे ही नहीं थे, वो द्रौपदी को समझते थे व उसको उन्होंने एक मित्र का दर्जा दिया हुआ था। उस युग में जब स्त्रियाँ पराए पुरुषों से बात तक नहीं करतीं थी, अर्जुन ने द्रौपदी की मित्रता अपने मित्र से करायी व उनकी मित्रता को बढ़ावा भी दिया। अपनी पत्नी चित्रांगदा के पिता को उन्होंने वचन दिया था कि उनके विवाह से उत्पन्न पुत्र उनका वारिस होगा व अर्जुन उसपर अपना अधिकार नहीं जताएँगे। अपने अन्य सभी पुत्रों का वध हो जाने के पश्चात भी अर्जुन ने इस वचन का पालन किया व बभरुवहन पर अपना अधिकार नहीं जताया। चित्रांगदा जब भी उनके पास आयीं, अपनी मर्ज़ी से आयी। उलूपी के अनुरोध पर उसके साथ एक रात्रि व्यतीत करने के बाद भी उन्होंने उसे पत्नी का दर्जा दिया, व उलूपी उस एक रात्रि के पश्चात वर्षों तक अर्जुन की प्रतीक्षा करती रहीं। महायुद्ध के पश्चात उनकी चारों पत्नियाँ हस्तिनापुर में एक साथ रहती थीं, किन्तु तब भी द्रौपदी के हृदय में उनके स्थान को कोई नहीं डिगा पाया। यह तो उनका प्रेम व सम्मान अपनी पत्नियों के लिए था। कृष्ण की पत्नी सत्यभामा उनकी मित्र थीं। स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी, जिसको देख ऋषियों का तप भंग हो जाता था, उसे देख अर्जुन को अपने पूर्वज राजा पुरुरावस स्मरण हो आए, जिनसे उर्वशी ने विवाह किया था, और उन्होंने उस सुंदर अप्सरा में भी माँ के दर्शन कर लिए। दुर्योधन की घोष यात्रा के दौरान उसका युद्ध गंधर्वों से हुआ, व उन्होंने उसे व कुरु स्त्रियों को बंदी बना लिया। अर्जुन ने गंधर्वों को परास्त कर उन्हें छुड़ाया व द्रौपदी के अपमान का प्रतिशोध उन स्त्रियों से लेने के विषय में सोचा तक नहीं, व उन्हें सम्मानपूर्वक हस्तिनापुर भिजवा दिया।
अर्जुन ने सदैव बड़ों का आदर किया। चाहे वो बाल्यकाल में अपने पिता पाण्डु से उनका विशेष स्नेह हो, या भीष्म में पाण्डु की छवि देख उनसे किया स्नेह। चाहे वो द्रोण को भगवान के समकक्ष रख आदर देना हो, या युधिष्ठिर के कहे हर वाक्य का पालन करना। अर्जुन के ऊपर अपने बड़ों का अनादर करना या उनसे असत्य कहने का दोष कोई नहीं लगा सकता। यहाँ तक कि युद्ध में भी जब सब योद्धा अपना आपा खो एक दूसरे को अपशब्द कह रहे थे या एक दूसरे का अपमान कर रहे थे, तब भी अर्जुन के मुख से किसी के लिए ऐसे शब्द नहीं निकले। युद्ध को उन्होंने कर्म समझकर किया, किन्तु स्वयं उससे दूर रहे। गीतोपदेश तो उन्हें महायुद्ध में प्राप्त हुआ, उससे पहले भी कभी किसी युद्ध में अर्जुन ने अपने शत्रु का अपमान नहीं किया, बड़ों का अनादर करना तो बहुत दूर की बात है। द्रुपद उनसे युद्ध में हारने के उपरांत भी उनके युद्ध कौशल व चरित्र का क़ायल हो गया था, और द्रौपदी की उत्पत्ति के उपरांत से उसके मन में उसके लिए वही एक वर था-अर्जुन।
अर्जुन को अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर व योद्धा कहा जाता था, उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी, किन्तु तब भी अर्जुन दंभी या अभिमानी नहीं थे। उन्हें अपने युद्ध कौशल व गांडीव पर गर्व था व पूर्ण विश्वास भी, किन्तु घमंड नहीं था। अपनी हर विजय का श्रेय उन्होंने अपने गुरु को दिया, व महायुद्ध की जीत का श्रेय कृष्ण तथा शिवजी को।
अपनी इंद्रियों को अपने वश में कर लिया था अर्जुन ने। महादेव को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने कठोर तप किया था, जिससे उत्पन्न गरमी से परेशान होकर उस पर्वत पर रहने वाले ऋषि स्वयं शिवजी के पास गए थे अर्जुन का तप बंद करवाने। स्वर्गलोक में इंद्र ने उन्हें अपने साथ अपने सिंहासन पर बैठाया, व उनसे कहा कि वो उनके साथ स्वर्ग में रहे। किन्तु कर्तव्यपरायण अर्जुन ने मना कर दिया कि उन्हें दैविय शस्त्र सीखकर वापिस धरती पर अपने परिवार के साथ वनवास में रहना है। जिस स्वर्ग को पाने के लिए लोग दानपुण्य करते हैं, त्याग करते हैं, कष्ट झेलते हैं, जिस इंद्रासन को पाने के लिए दानव कठिन तप करते हैं व फिर युद्ध, अर्जुन ने उस स्वर्ग व इंद्रासन को ठुकराने में एक क्षण भी नहीं लगाया।
अर्जुन ने कोई एक या दो अच्छे कार्य नहीं किए, अपितु अपना सम्पूर्ण जीवन एक कर्मयोगी की भाँति जिया। राजकुमार होते हुए भी अपना अधिकतर जीवन या तो वन में व्यतीत किया या रणभूमि में, किन्तु ना कभी भाग्य को कोसा ना किसी और को, सदैव उसे अपना कर्तव्य माना। कभी किसी से कटुवचन नहीं कहे, कभी किसी का अपमान नहीं किया, कभी कोई अधर्म नहीं किया। लोग समझते हैं कि अर्जुन को कृष्ण ने चुना, इसलिए वो श्रेष्ठ हैं। किन्तु सत्य यह है कि कृष्ण ने अर्जुन को इसलिए चुना, क्योंकि वो श्रेष्ठ हैं। कृष्ण ने उन्हें अपना सबसे प्रिय व्यक्ति कहा, जो उन्हें अपने धन, सम्पत्ति, राज्य, पत्नियों व पुत्रों से, यहाँ तक कि अपने जीवन से भी अधिक प्रिय है, और व्यास ने उन्हें नरोत्तम कहा, सब नरों में श्रेष्ठतम। शत्रु का वध करना कोई बड़ी बात नहीं थी क्षत्रियों के लिए; किन्तु उनमे से सर्वश्रेष्ठ योद्धा का युद्ध के परिणामों व होनेवाले संहार के विषय में चिंतित होना, यह अपने आप में अति विशिष्ट बात है जो मात्र एक महान योद्धा व श्रेष्ठ मनुष्य ही सोच सकता है।
और इसीलिए स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा, कि नरों में मैं अर्जुन हूँ।