जिनके भी भीतर से मौन की, परम की आहटें उठनी शुरू हुई हैं, उन्हें घाव ज़रूर मिले हैं, वही उनका पुरस्कार है।
किसी बुद्ध या कबीर का होना ही हमारे लिए एक अपमान की बात है, उसका होना ही लगातार-लगातार हमें यह बताता है कि हमारे रास्ते कितने टेड़े, कितने गलत हैं और कितने मूर्खतापूर्ण हैं। और कोई दिन-रात आपको यह ऐहसास कराए, अपने होने भर से ही, कुछ न बोले तब भी यह ऐहसास कराए कि तुम पगले हो, तो आपके सामने विकल्प क्या है?
आपको उसे मारना ही पड़ेगा, आप चिढ़ जाओगे।
और यदि आपकी मारने की इच्छा नहीं हो रही है बल्कि उसे और सम्मान देने की इच्छा हो रही है, इसका एक ही अर्थ है कि वो संत नहीं है, आपके ही जैसा है फिर तो ‘एक डाल दो पंछी बैठे कौन गुरु कौन चेला’।
लेकिन हम ऐसे आसक्त हैं गंदगी से कि जिसने आकर हमारा घर साफ़ किया, हमने उसी को मार डाला।
आज जो कुछ भी आपके पास है जो आपको शान्ति देता है, जिसके कारण आप इंसान कहलाने के हकदार हो तो वो इन्हीं लोगों से मिली है। इन्हीं लोगों से जिनको आपने घाव दिए बदनाम किया, जो आपको फूटी आँख नहीं सुहाए, जिनको लेकर आपके मन में हमेशा कलेश, शंकाएँ बनी ही रहीं।
कौतुहल के नाते ही सही ज़रा ध्यान तो दीजिए की कैसा होगा वो, जिसको दिखता होगा की इन रास्तों पर बड़ा खतरा है, जान का जोखिम है और फिर भी वो हँस के कहता होगा — मुझे इन्हीं पर चलना है।
हमें जहाँ दिखाई देता है की खतरा है, हम अपनी बड़ी होशियारी समझते हैं इस बात में की उन रास्तों से अलग हो लें, मुड़ लें और ये कैसा होगा पागल, मस्त, थोड़ा इसकी मस्ती को भी अनुभव कर लीजिए!
क्या राज़ है जो उसने जान लिया है और जो हमें नहीं पता?
कौनसा सच है जो उसको प्रकट हो गया है और हमसे छुपा हुआ है?
थोड़ा ध्यान दीजिये, स्पष्ट हो जाएगा।
लेकिन हम ऐसे डरे हुए हैं कि आँख खोलकर देख भी नहीं पाते।
आक्रंत हैं।
सत्य बेताब है आने को, आता है, बार-बार सामने आता है।
लेकिन हम हैं कि तुरंत मुँह फेर लेते हैं।