ऐसा नही है, हर वो व्यक्ति जिन्हें अवतार संज्ञा से संबोधित किया है सभी ने स्वयं को मानव से इतर बताया है, चाहे वो राम हों, कृष्ण हों, बुद्ध हों या कि हमारे समकालीन श्री रामकृष्ण, जितने भी प्रबुद्ध हुए हों. आत्म ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान की प्रतीति जिसे भी हुई वो अछूता नही रह पाया इस घोष से और ये घोष अहंकारवश नही किया गया बल्कि एक तथ्य का उद्घघोष है. वो प्रतीति, वो ज्ञान की चरम ऊंचाइयों पर स्वयं को इतना परिपूर्ण पाना, वहाँ पहुँच कर कुछ और पाने की या जानने की तृष्णा का पूर्ण अभाव उन्हें वो आभा मंडल प्रदान कर देता है जहाँ आनंदातिरेक में इस तरह के उदघोष स्वाभाविक हैं लेकिन कोई अहंकार नही, कोई तुलना नही, स्थितिपरक बात बताई गई है. हम इसे कैसे लेते हैं ये हम पर निर्भर, उन्होंने तो बतला दिया, उनसे श्रद्धावनत हो कर सीखना या कि स्वसीमाओ से बंध कर उनका उपहास करना, ये हमारी मर्जी.
सभी ने कहा है, श्रीकृष्ण ने केवल सीखने आये शिष्य अर्जुन को ही विराट रूप का दर्शन दिया था, हाँ उन्होंने कौरवों की सभा में भी विराट रूप का परिचय दिया था, परिस्थिति दोनो समय बेढब सी थी, एक ओर शिष्य स्वरूपी अर्जुन उन पर भरोसा नही कर पा रहा था, तर्क पर तर्क किये जा रहा था तो दूसरी ओर कुटिलता युद्ध से विरत होने का नाम नही ले रही थी बल्कि ऐसा निंदनीय कार्य करने जा रही थी कि युद्ध शायद होता ही नही. श्रीकृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास एक दूत को बंदी बनाने का निंदनीय कार्य तो था ही और उस प्रयास सभी कौरवों का नाश भी अवश्यम्भावी था जो श्री कृष्ण का अभीष्ट नही था इसीलिए क्षणिक क्रोध से सबको डरा कर लीला समेट ली.
समकालीन श्री रामकृष्ण ने भी एक और शिष्य विवेकानंद जी को भरोसा दिलाने के लिए विराटता का दर्शन कराया, उनकी छाती पर पैर रख कर सतोरी दिलवायी, श्री राम ने भी हनुमान पर कृपा की थी, विभीषण पर की थी हालांकि श्री राम के तरीके सूक्ष्म थे, अब सबका अलग अलग तरीका तो हो ही सकता है, श्रीकृष्ण ने विराटता का प्रदर्शन किया जिसके साक्षी और लोग भी थे इसलिए बात हम तक पहुंच गई अन्यथा अवतारों को प्रदर्शन का कोई लालच नही होता, न ही कोई ऐसी आकांक्षा ही होती है, कोई बेढब कार्य साधने में समयानुकूल परिस्थिति में ऐसा हो जाये तो इन्हें कोई संकोच भी नही है.