श्री कृष्ण के वृन्दावन धाम में ऐसा क्या है कि वहाँ जाकर दिल को सुकून मिलता है?

एक बार देवर्षि नारद जी को बैकुंठ में बैठे हुए लगा कि बहुत दिनों से सत्संग नही किया है। सत्संग करना चाहिए। सत्संग लाभ के भाव से वे “नारायण नारायण” का उच्चारण करते हुए इधर उधर घूमने लगे। कई लोकों की यात्रा की पर सत्संग नहीं मिला। घूमते घूमते पृथ्वी पे आ गए।

यहाँ भी सत्संग की खोज में लगे रहे। पहले तीर्थों में गए। श्रीमद्भागवत में लिखा है “पुष्करं च प्रयागं च काशीं गोदावरीं तथा। हरिक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं श्रीरंगम् सेतुबन्धनम्”। अर्थात नारद जी पुष्कर, प्रयागराज, काशी, गोदावरी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग तथा सेतुबंध रामेश्वरम आदि अनेक तीर्थों में गए लेकिन सुकून नहीं मिला।

इसके बाद वो संतों से मिलने गए। वहां का अनुभव “ पाखण्ड निरिता संत: विरक्ता स परिग्रहा”। अर्थात संतों में पांखड की प्रवृत्ति देखी। पाखण्ड मतलब “पापस्य खंड: इति पाखंड:”। पाखंड पाप का ही एक खंड है। यहाँ भी शान्ति नहीं मिली।

इसके बाद वो गृहस्थों के पास गए। वहाँ तो और भी भयंकर युद्ध देखा। उसका वर्णन “ तरुणी प्रभुता गेहे श्यालको बुद्धि दायक:। कन्या विक्रयणो लोभात् दम्पतिनाम् च कल्कनम्।।”

वहाँ उन्हें दिखा कि घर की मालकिन पत्नी है। पति की घर में नही चलती है। और यदि कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना है तो ससुराल से साले साहब को बुलाया जाएगा। उनकी बात ही मानी जाएगी। अपने माता-पिता की नहीं।

लोभ इतना ज्यादा भर गया है की बेटा-बेटियों के भी सौदे होने लगे हैं। विवाह के लिए एक-दूसरे को धन से तौलने लगे हैं। ये देख करके भी नारद जी को तसल्ली नहीं मिली।

तो जब न तीर्थों में, न संतों के पास और न ही गृहस्थी में सुकून मिला तब उन्होंने निर्णय किया कि वृन्दावन चलते हैं। वहाँ जरूर आनंद आएगा।

जैसे ही वे वृंदावन आए, तो यमुना किनारे एक आश्चर्य देखा। एक नवयुवती बैठी बैठी रो रही है और दो बुड्ढे उसके सामने बेहोश पड़े थे। कई युवतियां उसे घेर के बैठी थीं जो कोई हवा कर रही थी, कोई पानी पिला रही थी। नारद जी ने स्त्रियों का समुदाय वहां देख करके वहाँ से जाने लगे। पर जैसे ही इस युवती ने नारद जी को देखा तो रोका। तब नारद जी उसके पास गए और दुख का कारण पूछा। उसने बताया की महाराज मैं भक्ति हूँ, और ये दोनों मेरे पुत्र ज्ञान और वैराग्य हैं। मेरा जन्म कर्नाटक में हुआ, पालन-पोषण महाराष्ट्र में हुआ। जगह-जगह पाखंडों से बचती हुयी अपने बच्चों को लेकर मैं गयी पर जैसे ही मैं वृन्दावन में प्रविष्ट हुयी तो मैं तो जवान हो गयी पर मेरे बच्चे बूढ़े हो गए।

उनका दुःख सुन कर के नारद जी ने हरिद्वार में सनकादिक ऋषियों से कथा करायी तब वे जीवित हुए।

वो भक्ति मंदिर आज भी वृन्दावन में iskcon मंदिर और प्रेम मंदिर के बीच में है। आप दर्शन कर सकते हैं।

दूसरा एक कथा श्री मधुसूदन सरस्वती पाद जी की है। बात 1645 के आसपास की है। वाराणसी में रहने वाले मधुसूदन सरस्वती पाद जी कट्टर वेदांती थे। नाम, रूप को मिथ्या बताते थे। पर जब वृंदावन में आकर कृष्ण जी के दर्शन किये तो वेदांत भूल गये। जब लौट कर के काशी गए तो सबको बताने लगे की देखो हम कट्टर वेदांती हैं। उनके शिष्य बोले, “महाराज, ये अपने मुख से क्यों बोल रहे हैं। दुनिया में कौन नहीं जानता की आप ब्रह्म के उपासक हैं।” तो वे बोले, “जबसे वृंदावन गया हूँ मुझे अपने आप पे भरोसा नहीं रहा।” तब उन्होंने घोषणा की कि “कृष्ण से पर भी कोई तत्त्व है यह मैं नहीं जानता।” कृष्ण ही परमात्मा है।

तो जब इतने बड़े-बड़े ऋषियों और सन्यासियों को वृंदावन आकर सुकूँ मिला तो आशा है की आपको भी मिलेगा।

बाकी मैं वृंदावन का ही रहने वाला हूँ। अगर आपको कोई और सहायता चाहिए तो संपर्क कर सकते हैं।

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