ये गुनाह भी उसकी ही मर्ज़ी से होते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं एक पत्ता भी नही खनकता श्रीरामजी के मर्जी बगैर!
यह कोई विरोधाभास नही है कि जब सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही होता है फिर भी कितने गुनाह होते रहते हैं। यह तो माया है जो हमारी सोच को ढंक देती है और हम ये मान बैठते हैं कि मैं ये सब कर रहा हूँ। असल मे जो भी हो रहा है वो सब एक बड़े प्लान के तहत चल रहा है हम तो एक प्यादे हैं बस।
अब माया क्या है इसे इंग्लिश में illusion भी कहते हैं या भ्रम इत्यादि। यह भ्रम ही सब प्रकार के दुखों की जड़ है। जब हम कोई काम करने में सफल होते हैं तो हम कहने लगते हैं देखो मैं कितना काबिल हूँ आदि .. पर सत्य एक ही है कि जब अच्छा काम होता है तब भी आप तो वही हो जो गलत काम करते में रहते हो।
- हमे श्रेय लेने की आदत पड़ गई है। असल मे अच्छा बुरा सब प्रभु की मर्जी से चल रहा है ये बात जिस दिन हम समझ जाएंगे तो कोई गुनाह नही होगा।
गीता में अपने गुरु ,दादा, मांमा और न जाने सब को मारने की सलाह जब दी गई तो क्या वह सब सही थी ? हाँ और ना भी। क्योंकि.. भगवान ने कहा … निमित्तमात्र भव सव्यसाचीन .. अर्थात हे अर्जुन तू केवल निमित्त है इन सबको मैं ही मार रहा हूँ।
- जिस क्षण यह भाव हमारे सोच में विचारों में निष्चित होगा कोई गुनाह नही होता। जब भी कभी हम मैं कर रहा हूँ ये सोच के कोई काम करते हैं बात पाप पुण्य एयर गुनाह की होने लगती है।
एक गीता का उद्धरण देखतें हैं .. अध्याय 5 से ..
- ये सब इंद्रिया अपने आप में बरतती है और मैं कुछ नही करता हूँ यह भावना जब दृढ़ होगी तो न गुनाह होगा न कोई अच्छा काम सब वही करवा रहा है।
- ऐसी भावना मुक्त होने की पहली पहचान है। जब तक ये नही होगी गुनाह आप के खाते में डेबिट (नामें) पड़ते रहेंगे।