कर्ण के अलावा कुरुक्षेत्र के युद्ध में किसने अर्जुन को सबसे कड़ी चुनौती दी?

कर्ण के साथ हुआ युद्ध अवश्य ही कठिन था, क्योंकि १७वें दिन जिस कर्ण ने अर्जुन से युद्ध किया वह जीवनभर अर्जुन से प्रतिद्वंद्विता रखने वाले कर्ण से अलग था। निस्संदेह उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ इस अंतिम निर्णायक मुकाबले के लिये जानबूझ कर बचा रखा था।

कर्ण के अलावा संशप्तकों से अर्जुन का युद्ध सबसे लम्बा चला था और उनके लिये सबसे थकावट भरा रहा था। अर्जुन को मारने या प्रयत्न करते हुए मर जाने का वचन लेने वाली त्रिगर्त की सम्पूर्ण सेना ही संशप्तक कहलाई। वचन लेने के बाद उन्होंने अपना अंतिम संस्कार स्वयं ही कर दिया था। अर्जुन से इस युद्ध में अंतिम सैनिक तक उन्होंने युद्ध किया। इस युद्ध में अर्जुन की कठिनाई सिर्फ संशप्तकों की संख्या ही नहीं थी, बल्कि सिर्फ साधारण सैनिकों और घुड़सवारों इत्यादि से बने होने के कारण अर्जुन उन पर दैवीय अस्त्रों का उपयोग भी नहीं कर सकते थे। युद्ध में अभिभूत होने पर वे पीछे हट जाते थे, परंतु अर्जुन के जाने से पहले वे एक नयी चुनौती पेश कर देते। और उस समय के युद्ध के नियमों के अनुसार, चुनौती मिलने के बाद यह एक सम्मान का युद्ध बन जाता, जिसकी उपेक्षा अर्जुन कर नहीं सकते थे। यह द्रोण की ओर से दुश्मन के श्रेष्ठतम योद्धा को व्यस्त रखने की एक बहुत अच्छी रणनीति थी। यह फुटबॉल या हॉकी जैसे किसी खेल में विरोधी दल के सबसे अच्छे खिलाड़ी को अपने दो खिलाड़ियों से घेरकर व्यस्त रखने जैसा है, जिससे वह अपना प्राकृतिक खेल नहीं दिखा पाता है। पांडव संख्या की कमी के कारण संशप्तकों के विरोध में अपनी सेना का कुछ भाग समर्पित भी नहीं कर पाये। इस तरह हज़ारों के इस आत्मघाती दल से अर्जुन लगभग अकेले ही सिर्फ सामन्य अस्त्रों से लड़े। यह एक ही साथ निराशाजनक और थकाऊ था।

एक दूसरे योद्धा जिसने अर्जुन से सर्वाधिक भावनात्मक शुल्क वसूला, वे थे भीष्म। लोग आमतौर पर सोचते हैं कि भीष्म अपराजेय थे और इस कारण पांडव छल के बाद भी उन्हें मार नहीं पाये। परंतु सच थोड़ा अलग है।

  • पहली बात तो यह कि शांतनु के दिये वरदान के कारण भीष्म अपनी इच्छा के बिना मारे ही नहीं जा सकते थे। उन्हें अक्षम किया जा सकता था, जो अंततः अर्जुन ने किया भी, परंतु स्व-इच्छा के बिना उन्हें मारा नहीं जा सकता था।
  • दूसरी बात ये कि अम्बा को मिले वरदान के कारण इस समीकरण का एक हिस्सा शिखंडी को बनना ही था। उसका जन्म ही भीष्म की मृत्यु बनने के लिये हुआ था, अतः भीष्म के अंत की किसी भी योजना से उसे अलग नहीं किया जा सकता था।
  • तीसरी बात, कि महारथी होने के बावजूद, शिखंडी अकेले भीष्म को पराजित नहीं कर सकता था। न सिर्फ भीष्म ने उससे युद्ध करने से इंकार कर दिया, बल्कि शिखंडी में भीष्म को नष्ट करने की योग्यता भी नहीं थी।
  • चौथी बात, भीष्म अपराजेय नहीं थे। उन्हें अधिकतर दैवीय अस्त्रों का अच्छा अभ्यास था, युद्ध कला के विषय में जानने योग्य सभी बातें उन्हें मालूम थीं, उन्हें अस्त्रों और शास्त्रों के यथार्थ का ज्ञान भी था, मुख्यतः उम्र और पद के कारण उनके नेतृत्व गुण भी श्रेष्ठ थे, किंतु वह अजेय नहीं थे। वह एक वृद्ध पुरुष थे, मुख्य योद्धाओं के दादा। अपनी उम्र के हिसाब से वे कितने भी चुस्त-दुरुस्त हों, उनकी ऊर्जा अर्जुन, भीम या दुर्योधन के जैसी बिल्कुल नहीं थी। परशुराम से युद्ध में बराबरी करने वाला उनका समय भी बहुत पहले बीत गया था। विराट युद्ध में अर्जुन पहले ही उन्हें परास्त कर चुके थे। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वे बिल्कुल कांपते शरीर वाले वयोवृद्ध थे, परंतु भीष्म निश्चय ही अपनी उत्तम अवस्था में नहीं थे और उनकी प्रतिष्ठा और सम्पूर्ण कौरव-पांडव परिवार के मुखिया के नाते ही उनका प्रभाव था। पांचालों से हुए युद्ध में वे कभी अकेले नहीं होते थे। दुर्योधन हमेशा उनकी चिंता करता और उनकी सुरक्षा के लिये योद्धाओं की नियुक्ति करता रहता था। और जब-जब अर्जुन ने ठान लिया, उन्हें अपने पोते से हारना पड़ा। वे मुख्यतः सेना को नुकसान पहुंचा रहे थे, मुख्य योद्धाओं को नहीं। परंतु, संख्या में कम होने की कारण यह युधिष्ठिर को चिंतित कर रहा था। बिना मुख्य योद्धाओं को नुकसान पहुंचाये भीष्म सिर्फ पांडव सेना को अनिश्चित काल तक नष्ट करते रह सकते थे, परंतु अंततः इससे युद्ध का संतुलन पांडवों के हाथों से निकल जाता।

अतः अर्जुन को एक ऐसे व्यक्ति से युद्ध के लिये बाध्य होना पड़ा जिनसे लड़ने की अर्जुन की कोई नीयत ही नहीं थी। भीष्म के साथ हुआ युद्ध कर्ण-अर्जुन के युद्ध जैसा भयंकर नहीं था, परंतु यह अर्जुन के लिये मानसिक और भावनात्मक रूप से अधिक कठिन था। पांडु की मृत्यु के बाद भीष्म ने एक युवा अर्जुन के जीवन में पिता-समान भूमिका निभायी थी, और वहाँ बना जुड़ाव हमेशा अर्जुन के साथ रहा। अर्जुन को कई स्मृतियाँ थींं – गंदे पैरों के साथ अपने दादा की गोद चढ़ना, उनके स्वच्छ सफेद वस्त्रों को गंदा करना या जब पांडु की अनुपस्थिति में दादा से प्रेम मिलने के कारण उन्हें अर्जुन ने ‘पिता’ का सम्बोधन दिया था। अर्जुन को यह भी पता था कि भीष्म को रोकने की क्षमता सिर्फ एक उनमें ही थी। अतः गीता के सभी उपदेशों के बाद भी, अर्जुन अपने कर्तव्यपालन और एक ऐसे व्यक्ति को नष्ट करने के बीच भावनात्मक रूप से विदीर्ण थे, जिन्होंने उनके हृदय में पिता का स्थान लगभग ले ही लिया था। अर्जुन को पता था कि वह भीष्म को निष्फल कर सकते थे; इस विषय में अर्जुन और भीष्म के भी विचारों में कोई संदेह नहीं था; बस इस जुड़ाव के कारण ऐसा कर पाना अर्जुन के लिये अत्यंत कठिन हो गया था।

अगर सिर्फ कौशल की बात करें, तो अर्जुन के साथ सिर्फ कर्ण के युद्ध को ही भयंकर कहा जा सकता है और यह भी बहुत देर नहीं चल सका। क्योंकि कुछ गलतियों को छोड़ दें तो अर्जुन कुछ ज्यादा ही बेहतर योद्धा थे। हालांकि अर्जुन बहुत पहले ही उनसे श्रेष्ठ हो चुके थे, फिर भी द्रोण उन्हें कुछ चुनौती दे सकते थे। परंतु अर्जुन अपने प्रिय गुरु को भी नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे। धृ (धृष्टद्युम्न) का जन्म द्रोण की मृत्यु के लिये हुआ था, यह भी एक बात थी। कभी-कभी अश्वत्थामा ने उन्हें चुनौती दी, परंतु जैसा मैंने कहा, अर्जुन कौरव पक्ष के किसी एक योद्धा से अस्त्रों के ज्ञान और कौशल में बहुत आगे निकल चुके थे। अगर यह युद्ध सिर्फ पराजित करने के लिये लड़ा गया होता, मारने की बाध्यता नहीं होती, तो विराट युद्ध की तरह बिना खास मेहनत किये अर्जुन सबको हरा सकते थे, उन्हें कई दुश्मनों से एक साथ युद्ध करने में महारत हासिल थी। अपने प्रियजनों की मृत्यु की बाध्यता से ही उनकी ऊर्जा क्षीण हुई थी। दूसरा कारण कुरुक्षेत्र की विशालता भी थी, अर्जुन सभी जगह एक साथ तो हो नहीं सकते थे। युद्ध के नियम भी हीन योद्धाओं पर श्रेष्ठ अस्त्रों के उपयोग को वर्जित करते थे, हालांकि द्रोण, अश्वत्थामा और कर्ण – इन सभी ने एक-एक बार इस नियम की अनदेखी की। इस नियम के कारण अर्जुन अपना सबसे प्रभावी अस्त्र – पाशुपातस्त्र का उपयोग ही नहीं कर सकते थे। युद्ध के बाद अश्वत्थामा को रोकने के लिये संधान करने से पहले तक उन्होंने ब्रह्मशिरा अस्त्र का विचार तक नहीं किया। इन सबके अलावा अर्जुन को अधिकतर अकेले ही लड़ना पड़ा क्योकि सेना युधिष्ठिर की रक्षा करती थी, जबकि उनके विरोधियों के पास सहायक योद्धा या उनकी सम्पूर्ण सेना तक होती थी। एक बार अर्जुन की अनुपस्थिति में पूरी पांचाल सेना को युधिष्ठिर को बचाने के लिये मानव दीवार बनकर खड़ा होना पड़ा, अतः अर्जुन सहायक योद्धा नहीं ले जा सकते थे। टीवी के धारावाहिक व्यय की बाधाओं के कारण और कई बार जानबूझकर, सिर्फ जनता की भावनाओं और टीआरपी के लिये अर्जुन के इस स्वरूप को अनदेखा करते हैं। और इसीलिये अधिकतर लोग अर्जुन को उतना कुशल नहीं मानते जितना वो ग्रंथ मेंं हैं।

सच यही है कि वह सर्वश्रेष्ठ थे, दूसरों से कहीं बेहतर, और उनका सबसे बड़ा शत्रु उनका अपना जुड़ाव था जिसे शांत करने का प्रयास कृष्ण लगातार करते रहे। उन्होंने कभी अर्जुन की प्रशंसा कर उन्हें उनकी श्रेष्ठता का स्मरण कराया; कभी उनके विरोधियों की प्रशंसा कर उन्होंने अर्जुन को उनके क्रोध का स्मरण कराया; कभी उनकी डांट लगा कर अर्जुन को उनकी भावनाओं से अलग किया; और कभी युद्ध में शामिल होने की धमकी देकर अर्जुन के जुड़ाव को नियंत्रण में रखा। और यहीं अर्जुन को कृष्ण की मुख्य आवश्यकता थी; वे अकेले ही हर योद्धा को हराने में सक्षम थे, उन्हें कृष्ण की आवश्यकता सिर्फ इसीलिये थी कि वे स्वयंं अपने जुड़ाव को हरा नहीं पा रहे थे। और गीता के उपदेशों के बाद भी कर्तव्य के प्रति मार्गदर्शन करने के लिये उन्हें बारम्बार कृष्ण की आवश्यकता पड़ी।

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