गीता में स्थितप्रज्ञ क्या है?

श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि पार्थ तुम भी आत्मिक योगबल के द्वारा अपनी अंतरात्मा में झांककर परमात्मा को देखने के प्रयास करो, समबुद्धि कर्मयोग का आचरण करो और स्थितप्रज्ञ बन जाओ।

अर्जुन पूछते है – हे मधुसूदन! ये स्थितप्रज्ञ क्या होता है ? इसे समझाओ!

कृष्ण कहते हैं – पार्थ! दु:ख भोगते हुए भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और ना ही जो सुख की लालसा रखता है तथा जिसके हृदय में क्रोध,मोह,भय आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वो मनुष्य स्थित प्रज्ञ है।

दुःखेष्वद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध स्थितधीक्षैनिरुच्यते ॥

अर्थ :- दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।

अर्जुन बोला – समझाकर मुझको कहो, हे केशव! सर्वज्ञ भाषण आसन चलन में, कैसा है स्थितप्रज्ञ

कृष्ण बोले- पूर्ण मनोकामनायें मन से जो तज डालें ,रहे संतुष्ट सदा आत्म विलास में, दुःख के आने पर जो विचलित न हो कदापि, नहीं कोई स्पृहा सुख सुमन सुवास में, राग है न देष जहाँ मोह नेह शेष नहीं, लेश मात्र अस्थिरता जिसके आभास में, शुभ से प्रसन्न हो, न अशुभ से जो भय माने ऐसा स्थितप्रज्ञरा में योग रसरास में।

हे पार्थ ! स्थितप्रज्ञ महापुरुष सुख दु:ख, प्रत्येक अवस्था में आत्मिक शांति प्राप्त कर लेता है। परम आनंद में लीन होने से ऐसे मनुष्य को सुखदुःख कभी विचलित नहीं करते। ऐसे स्थित प्रज्ञ मनुष्य का मन उस दीये की भांति होता है जिसकी लौ स्थिर होती है, कभी डोलती नहीं।

अर्जुन पूछते हैं – हे कृष्ण! आप कहते हो स्थितप्रज्ञ बनने के लिए मन के दीये की ज्योत को स्थिर रखो अर्थात मन को इधरउधर डोलने न दो, इसका अर्थ ये हुआ कि कर्म करते समय बुद्धि की बात मानो।

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