कृष्ण और राधा कभी अलग नही हो सकते।: शास्त्र कहते है, “क्रीडनार्थं द्विधाभूत” अर्थात राधा और कृष्ण एक है, बस क्रीड़ा करने हेतु दो रूपों में प्रतिष्टित है। “दुग्धधावल्ययोर्ययथा” अर्थात जैसे दुग्ध और उसकी सफेदी एक है वैसे राधा कृष्ण एक है। दूध से सफेदी को कोई पृथक नही कर सकता न सोच सकता है, ऐसा एकत्व है उन दोनों में। “यथा छाया वृक्षस्य हि वर्णः पुष्पाणाम यथा। एकोरात्मा कृष्ण राधा एक एकात्म सर्वथा।” जैसे वृक्ष की परछाई हमेशा उसके साथ होती है, जैसे पुष्पों का रंग उन्हीके साथ उन्हींकी पहचान बनकर रहता है, वैसे ही राधा कृष्ण सदा सर्वदा एक है, एकात्मभूत है। “एकं ज्योति द्वेधापातायत् राधा माधव रूपकम्।” ऋग्वेद कहता है कि एक ही ज्योति दो बन गई, राधा और कृष्ण। अतः जो एक ही है उनको विभाजित करनेकी क्षमता किसी में नही। “शक्ति धात्री महाविद्या आत्मा श्रीश्च कृष्णस्य सा।” अर्थात राधा ही कृष्ण की शक्ति है, कृष्ण को धारण करनेवाली है, कृष्ण को जानने वाली महाविद्या है, कृष्ण का ऐश्वर्य है और कृष्ण का आत्मा भी वही है। कृष्ण और कृष्ण का आत्मा एक है, वो कृष्ण से कभी भिन्न नही हो सकती, उसे प्रकृति की कोई भी शक्ति विभक्त नही कर सकती। “कृष्ण और राधा अलग क्यों हुए” ये प्रश्न गलत है क्योंकि जो एक है उसे अलग करना असंभव है।
कृष्ण और वृंदावन कभी अलग नही हो सकते। उपनिषद् कहते है “पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते” अर्थात पूर्ण परंब्रह्म से पूर्ण की ही प्राप्ति होती है। भगवान के सारे धाम क्योंकि वे पूर्ण भगवान के द्वारा प्रस्थापित है, वे भगवान के ही स्वरूप है। धाम और धामी में कोई भेद नही होता। वे दोनों एक ही होते है। जब भगवान अवतार लेकर धरातल पर आते है तो उनके धाम भी इस धरातल पर अवतरीत होते है। जो धाम वैकुंठ में है, वही इस पृथ्वीपर आए है। दोनों में कोई भेद नही। जैसे भगवान वैकुंठ का त्याग कभी नही करते वैसे भगवान भूवैकुंठ वृंदावन का त्याग कभी नही करते। जब भगवान जन्म लेते है तब उनके भक्त, उनके रहनेका स्थान, उनका ऐश्वर्य आदि भगवान से जुड़ा सब कुछ उस आध्यात्मिक जगत से इस भौतिक जगत में पधारता है। इसीलिए आज भी कृष्ण वृंदावन में निवास करते है। वे कभी गए ही नहीं।
कृष्ण ने वृंदावन कभी नही छोड़ा। कृष्ण की एक सहस्त्र पत्नियाँ थी। हर एक के साथ एक एक कृष्ण ऐसे एक सहस्त्र कृष्ण द्वारकापूरी में निवास करते थे। जिन कृष्ण का वृंदावन से प्रस्थान हुआ वे ‘वासुदेव कृष्ण’ थे, कृष्ण का ही एक स्वरूप थे। द्वारकानरेश सम्राट कृष्ण चले गए, नन्हे नटखट लंपट कन्हैया तो वही रहे। कृष्ण वृंदावन से और राधिका से अलग होकर जा ही नही सकते। यह असंभव है। असंभव भी संभव हो जाए, किन्तु यह परंब्रह्म के स्वभाव के विपरीत है, अतः सर्वदा असंभाव्य ही है।
विरह : प्रेम की पराकष्ठा
कृष्ण तो वही थे। आचार्य कहते है, गोपियों की आँखे हमेशा आसुओं से भरी रहती थी अतः कभी उन्हें कृष्ण दिखे ही नहीं। संन्दर्भ यह है कि कृष्ण का वृंदावन में होकर भी न होना विरह लीला थी। जैसे कोई आपको एक चित्रपट दिखाए जिसमें नटी और अभिनेता एक साथ थे, एक साथ है, और हमेशा रहेंगे, आप कहेंगे, “ये क्या है? कुछ रोमांचक, चित्तरंजक, साहसी दिखाओ।” एक साथ होने से भावनाएँ, प्रेम और माधुर्य होता अवश्य है किंतु उनका प्रदर्शन नही होता। दोनों एक साथ है तो आपको उनके प्रेम की अनुभूति नही होगी। आप को लगेगा कि यह दिखावा है, आप ऊब जाओगे। किन्तु दोनों एक दूसरे से अलग है, विरह में कातर हो रहे है, उनके अंग काँप रहे है, ग्रीवा दब गई है, दम घुट रहाँ है, गालोंपर आसुओंकी अभंग धार है, एक दूसरें का स्मरण कर दोनों हृदय की वेदनाओं में ग्रस्त है तब उन्हें देखकर आप भी रोने लागोंगे। इसीलिए विरह प्रेम का निचोड़ है, प्रेम की चरमसीमा है, प्रेम की अनंत नितांतता है। विरह से ही प्रेम परिपूर्ण होता है। यही विरह की नुमाइश राधा और कृष्ण ने की इसीलिए वे विरह माधुर्य के मूर्तिमंत स्वरूप थे।
राधा, यशोदा और नंद बाबा
वृंदावन के सभी ब्रजवासी जीते जागते शव हो गए थे। उनके अश्रूओं से संपूर्ण ब्रज की मिट्टी हमेशा गीली रहती। उसपर गौ के पैरों के छाप में वे कृष्ण को देखते। शरद में श्यामकुण्ड में खिले कमल में गोपमित्र कृष्ण की छबि देख कुंड में कूद पड़ते। गोपियाँ कदंब के सुडौल कुंदे में कृष्ण की आकृति देख माखन के मटके वही छोड़ वन की ओर भागती। जब जम्बुफल पेड़ से गिर पड़ते तब उसके स्त्राव से मिश्रित नीले पंक में दधिलोभी अपने कान्हा को देखकर वृक्ष की शाखाओं से गिर पड़ता। वंशिप्रिया, हंसी और पिङ्गला ने दुध देना ही छोड़ दिया, न वे कभी यमुना की ओर जाती। मानो सम्पूर्ण ब्रज का कण कण कृष्ण के विरह की अग्नि में जल रहाँ था। फूलों ने सुगंधित होना, पंछियों ने कलरव करना और भुंगों ने गुंजारव करना भुला दिया। गोपियाँ कृष्ण के साथ बिताएँ वे क्षण याद करती और यमुना के जल में खुद के ही प्रतिबिंबों से बातें करती। कभी कोई पूतना बनती, कोई अघासुर बनती, कोई प्रलम्बासुर बनती और कृष्ण के लीलाओं को दोहराती। यशोदा और नंद मूर्छित रहते। जब उन्हें चेतना आती तब कृष्ण की याद से वे फिर मूर्छित हो जाते। जैसे मछलियाँ जल से अलग हो, चातक वर्षा से वंचित हो और माता पुत्र से दूर हो वैसी अवस्था सम्पूर्ण वृंदावन की थी।
इस उपयुक्त और ज्ञानवर्धक प्रश्न का उत्तर देने का अवसर प्रदान करने के लिए धन्यवाद सिद्धार्थ मावाणीजी।
विश्व आध्यात्मिक प्रेम से भर जाए। मन प्रेम का अनुभव करे, तथा आँखे उसीको देखे, वाणी उसीके गुण गान करे।
इदं सर्वं कृष्णार्पणम्।
आपका सेवक, संवित महाशय।