कर्ण कैसे बना कौरवों का मित्र?

कर्ण महाभारत का एक अहम पात्र है। कौरव उसे अर्जुन के काट के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे। लेकिन वह आखिर दुर्योधन को मिला कैसे?

कर्ण के क्षत्रिय न होने पर उठे सवाल

जब कर्ण ने आकर अपने हुनर दिखाए, तो अर्जुन ने तत्काल हस्तक्षेप किया और कहा, ‘यह आदमी क्षत्रिय नहीं है।

कौन हो तुम? इस प्रतियोगिता में घुसने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’ भीम खड़ा होकर बोला, ‘तुम किसके पुत्र हो? अभी बताओ?’ अचानक आत्मविश्वास से भरपूर उस युवक कर्ण का, जो अर्जुन से बेहतर धनुर्धर था, आत्मविश्वास डगमगा गया। जब उन्होंने पूछा, ‘तुम्हारे पिता कौन हैं?’ तो वह बोला, ‘मेरे पिता अधिरथ हैं।’ फिर वे लोग बोले, ‘अरे, तुम तो सूत पुत्र हो! और तुम इस मैदान में दाखिल हो गए। जाओ यहां से। यह क्षत्रियों के लिए है।’

दुर्योधन कर्ण को अर्जुन के खिलाफ तैयार करना चाहता था

दुर्योधन को अपने जीवन का सबसे महान अवसर ठीक अपने सामने दिखाई दे रहा था और वह उससे चूकना नहीं चाहता था। उसकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि उसके भाइयों में कोई धनुर्धर नहीं था।

उसे विश्वास था कि एक दिन वह भीम को हरा देगा और उसके कुछ भाई नकुल और सहदेव को मार डालेंगे, एक दिन वे सिर्फ धर्म पर प्रवचन देकर युधिष्ठिर को हरा देंगे। मगर उसे अर्जुन की चिंता थी, क्योंकि उसके टक्कर का धनुर्धर उनके पास नहीं था। इसलिए जब उसने कर्ण को और उसकी काबिलियत को देखा, तो उसने तत्काल उसे लपक लिया। उसने खड़े होकर कर्ण की ओर से राजा से प्रार्थना की। बोला, ‘पिताजी, ऐसा कैसे हो सकता है? शास्त्रों के अनुसार एक आदमी तीन तरीकों से राजा बन सकता है – या तो वह राजा का पुत्र हो या फिर उसने अपने हुनर और साहस से किसी राजा को परास्त किया हो या फिर खुद कोई राज्य खड़ा किया हो।’

कर्ण बना अंगराज कर्ण

‘कर्ण अभी यहीं है। अगर अर्जुन उससे इसलिए नहीं लड़ना चाहता क्योंकि कर्ण राजा नहीं है, तो मैं उसे राजा बना देता हूं।

दूर देश में अंग नामक हमारा एक छोटा सा राज्य है। वहां कोई राजा नहीं है। मैं कर्ण को अंग देश का राजा बनाता हूं।’ उसने एक पुजारी बुलवाकर उसी जगह कर्ण का राज्याभिषेक कर दिया। ‘यह अंगराज है, अंग का राजा। अर्जुन किसी के जन्म का बहाना लेकर नहीं बच सकता। मुझे परवाह नहीं है कि इसके पिता कौन हैं। मैं इसे अपना मित्र स्वीकार करता हूं।’ उसने कर्ण को गले लगाकर कहा, ‘तुम मेरे भाई हो और अब से एक राजा।’

वफादारी में बंध गया कर्ण

कर्ण अभिभूत था क्योंकि उसे अपने पूरे जीवन अपने नीचे कुल के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था।

यहां एक राजा का बेटा उसके लिए खड़ा हुआ, उसे गले लगाया और उसे राजा बना दिया। उसकी वफादारी ने उसे जीवन भर के लिए बांध दिया। आप देखेंगे कि यह बेवजह की वफादारी समय के साथ कई बार बहुत खतरनाक मोड़ ले लेगी। इस प्रतियोगिता के बाद कर्ण एक राजा और दुर्योधन के मित्र की तरह महल में दाखिल हुआ। अब उसके और शकुनि के साथ मिलकर कौरव पहले से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हो गए थे। कर्ण की बुद्धिमत्ता और कौशल की मदद से वे अधिक सक्षम हो गए थे। दुर्योधन को लगा कि यह पांचों पांडवों का अंत करने का सही समय है।

गृह युद्ध की नौबत सामने आ रही थी

आम जनता भी खुद को या तो पांडवों के साथ या कौरवों के साथ जोड़ने लगी थी। महल में और पूरे शहर में लोगों की निष्ठा तय होने लगी थी। पूरा शहर दो पाटों में बंट गया था।

धृतराष्ट्र को लगने लगा था कि अगर स्थिति को रोका नहीं गया तो गृह युद्ध की नौबत आ जाएगी। ऐसी स्थिति में किसी एक को तो जाना ही होगा- स्वाभाविक तौर पर वे अपने बच्चों को वंचित करना नहीं चाहते थे। उन्होंने सोचा कि पांडवों को जाना चाहिए, लेकिन वे कुछ कह नहीं पा रहे थे। भीष्म पूरे हालात पर नजर रखे हुए थे, क्योंकि उनकी निष्ठा सिर्फ राज्य के साथ थी और राज्य में गृहयुद्ध की नौबत आ रही थी। यह गृहयुद्ध अभी सड़कों पर बेशक शुरु नहीं हुआ था, लेकिन हर किसी के दिल व दिमाग में जबर्दस्त संघर्ष चल रहा था। धृतराष्ट्र ने कुटिल सलाहकारों से राय ली तो सबने यही सलाह दी कि पांडवों को खत्म करने का यह सबसे सही समय है।

मामा शकुनी की चाल

शकुनि ने एक योजना बनाई। उसने कहा, ‘इन लोगों को किसी तीर्थस्थान पर भेज देते हैं।’ आप जानते हैं कि देश में बहुत से तीर्थस्थान हैं, मगर उनमें से सबसे पवित्र हमेशा से काशी माना जाता है।

शकुनि ने राजा को सुझाव दिया कि वह पांडवों को तीर्थयात्रा पर काशी भेज दें। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को बुलाकर कहा, ‘तुम अपने पिता को खो चुके हो और इतनी कम उम्र से इतनी परेशानियां झेल रहे हो, मुझे लगता है कि तुम्हें किसी तीर्थस्थान पर जाना चाहिए। मैं चाहता हूं कि तुम काशी जाओ और एक वर्ष तक शिव के पशुपति रूप की आराधना करो, जो अब तक दुनिया के सबसे महान धनुर्धर और योद्धा रहे हैं। एक वर्ष तक उनकी आराधना करने के बाद वापस आओ, फिर तुम राजा बनने के काबिल बन जाओगे।’ अब तक युधिष्ठिर को युवराज की गद्दी मिल चुकी थी, इसका मतलब था कि वह राजा बनने वाला था।

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