पढ़ते हैं जाने माने फिल्म निर्माता निर्देशक सुभाष घई की सद्गुरु से बातचीत के संपादित अंश जिसमें सुभाष घई और सद्गुरु भ्रष्टाचार के बारे में चर्चा कर रहे हैं:
सुभाष घई : सद्गुरु, मुझे लगता है कि हमें भ्रष्टाचार को लेकर दूसरों पर आरोप लगाने से पहले खुद अपने भीतर सुधार लाना चाहिए। आप इस बारे में क्या कहेंगे?
सद्गुरु : बिल्कुल सही कह रहे हैं आप। लेकिन अभी जो हाल है, मान लीजिए मैं भ्रष्टाचार से मुक्त हूं, पर हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहां हर जगह भ्रष्टाचार है। इसकी वजह से यहां आप तब तक काम नहीं कर सकते, जब तक आप कहीं न कहीं, किसी न किसी तरह से दूसरे को फायदा नहीं पहुंचाते।
सुभाष घई: लेकिन उस भीड़ में शामिल होने के लिए हमें क्यों हथियार डाल देना चाहिए?
सद्गुरु: अगर आप ऐसा नहीं करते तो आपको एक आंदोलनकारी बनना होगा। आपको बस भ्रष्टाचार से लडऩे का ही काम करना होगा।
सुभाष घई: अगर मैं इसके लिए दृढ़ निश्चय कर लूं तो….?
बड़ा कारोबार या संस्था चलाना मुश्किल होगा
सद्गुरु: तो आप दुनिया में ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे। यह सच्चाई है। कुछ समय पहले की बात है, मैं चेन्नई में कुछ प्रतिष्ठित कारोबारियों से बात कर रहा था। वे सब भ्रष्टाचार की बातें कर रहे थे। मैंने कहा, ‘यह सब तो ठीक है।
मैं भी एक साफ सुथरा समाज चाहता हूं। लेकिन आप में से कितने लोग अपने दिल पर हाथ रख कर यह कह सकते हैं कि आपने जीवन में कभी भ्रष्टाचार के आगे घुटने नहीं टेके?’ यह सुनकर हर आदमी शांत होकर बैठ गया। मैंने कहा, ‘आपको शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। मैं एक आध्यात्मिक संगठन चलाता हूं। फिर भी मुझे इसके आगे झुकना पड़ा।’ हालांकि मैं उन्हें पैसे नहीं देता।
मैं बताता हूं कि यह सब कैसे शुरू हुआ। शुरु-शुरु में मुझसे कहा गया कि ‘सद्गुरु, तमिलनाडु में यह…’। मैंने कहा, ‘हम कोई पैसा नहीं देंगे।’ मैंने तय किया कि हम कोई रिश्वत नहीं देंगे। लेकिन फिर हमारे ईशा के लडक़ों को एक छोटे से छोटा काम कराने के लिए भी इस कोने से उस कोने तक दौडऩा पड़ता। वह हमसे कहते, ‘सद्गुरु, अगर हम उसे सिर्फ एक सौ का नोट पकड़ा दें तो काम हो जाएगा।’ मैंने कहा – ‘नहीं। अगर पैसे नहीं दिए तो क्या होगा, एक दिन के काम में महीने लग जाएंगे।’ अब हर दिन वे दौड़ रहे हैं।
चेकपोस्ट के आदमी के लिए भोजन भेजा गया
एक बार मैं अपना कार्यक्रम खत्म करके देर रात वापस लौट रहा था। गाड़ी मैं ही चला रहा था। जंगल के चेकपोस्ट पर जो आदमी था, वह गेट बंद करके कहीं चला गया था।
मैंने अपनी गाड़ी वहीं खड़ी कर दी। यह इलाका हाथियों का इलाका है। कभी भी किसी समय यहां सडक़ों पर हाथी आ सकते हैं और वो भी जंगली। मैं गाड़ी पार्क कर वहीं इंतजार कर रहा था और हमारे लडक़े वनाधिकारी से लेकर क्षेत्रीय वनाधिकारी तक सब जगह दौड़ लगा रहे थे, संपर्क कर रहे थे। और गेट का वो आदमी उठने को तैयार नहीं था। रात के 2 बज गए। सुबह के 3 बजने को आए। मैंने कहा कि मैं पैसा नहीं दूंगा। लेकिन तकरीबन सौ से डेढ़ सौ लोग मेरे लिए गेट खुलवाने के लिए यहां-वहां दौड़ रहे थे। मुझे लगा कि यह भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसी लड़ाई है? मैं यहां खड़ा होकर भ्रष्ट न होने की संतुष्टि ले रहा हूं और उधर बाकी लोग हर तरफ भाग रहे हैं।’ फिर मैंने कहा, ‘ठीक है, पैसे तो नहीं, लेकिन उनके सामने भोजन का प्रस्ताव रखो। अगर अधिकारी मानता है तो वह ईशा योग केंद्र में आकर कुछ समय के लिए रह सकता है।’ लडक़ों ने भोजन का प्रस्ताव रखा तो उसने कहा कि ‘हम वहां नहीं आ सकते, आप भोजन यहां भेजें।’ उन्होंने उसके लिए खाना भेजा।
शुरू में जब हम ईशा योग केंद्र बना रहे थे तो सीमेंट का ट्रक आता तो चेक पोस्ट का अधिकारी मौके पर ही दो बोरी सीमेंट की मांग करता। मैंने मना कर दिया। फिर अधिकारी चेकपोस्ट पर ही ट्रक खड़ी करवा देता और आरोप लगाता कि ‘तुम लोग चंदन की चोरी कर रहे हो, मुझे ट्रक की चेकिंग करनी है। ट्रक खाली करो।’ वह हमसे जंगल के बीचों बीच ट्रक खाली करवाता। पहले दो सौ सीमेंट के बोरे ट्रक से उतारे जाते और फिर ट्रक में चढ़ाए जाते। हर बार ऐसा होता। अंत में हुआ यह कि कोई भी ट्रक मालिक ईशा योग केंद्र में अपने ट्रक भेजने को तैयार नहीं होता।
निजी नौकरी में आपका काम चल सकता है
सुभाष घई: तो क्या हम यह समझें कि किसी परिस्थिति विशेष में जो हम सबसे बेहतर कर सकते हैं, हमें वही करना चाहिए?
सद्गुरु: हम जो सबसे बेहतर कर सकते हैं, वही हमें करना चाहिए।
लेकिन मेरा कहना है कि अगर आप निजी तौर पर कहीं नौकरी करते हैं, तो हो सकता है कि आपका काम बिना भ्रष्टाचार के चल जाए। अगर आप कोई एक बड़ा कारोबार या संस्था चलाते हैं तो विश्वास कीजिए कि लोग आपको जीने नहीं देंगे। आपको यह लेनदेन किसी फेवर के लिए नहीं करना होगा, बस अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए करना होगा। वे आकर आपको किसी भी बात पर गिरफ्तार कर सकते हैं।
मेरा यह मतलब नहीं कि भ्रष्टाचार ठीक है। लेकिन अफसोस की बात है कि हमने एक ऐसा देश बना लिया है जिसमें अगर आप बड़े पैमाने पर कोई काम करना चाहते हैं तो वह काम तब तक नहीं हो सकता, जब तक आप कहीं न कहीं किसी को खिलाए-पिलाएं नहीं। भले ही आप न खा रहे हों, लेकिन आपको दूसरों को खिलाना पड़ता है। अगर कोई कहता है कि वह ऐसा नहीं करता है, तो वह झूठ बोल रहा है। मुझे बस इतना ही कहना है।