प्रेम और वासना

प्रेम! प्रतिक्षण बढ़ता है, जो प्रेम घटने लगे वह प्रेम नहीं वासना होगी!
वासना प्रतिक्षण घटती है। वासना का स्वरूप है; जब तक तुम्हें अपना काम-पात्र न मिले, बढ़ती हुई मालूम होती है। तुम एक स्त्री को चाहते हो, वह न मिले तो कामवासना बढ़ती जाती है, उबलने लगती है, सौ डिग्री पर ज्वर चढ़ जाता है, भाप बनने लगते हो, सारा जीवन दांव पर लगा मालूम पड़ता है; और मिल जाए! उसी पल से घटना शुरू हो जाती है। वासना का लक्षण यह है! जब तक न मिले तब तक बढ़ती है; मिल जाए, घटने लगती है।
प्रेम का लक्षण यह है! जब तक न मिले तब तक तुम्हें पता ही नहीं कि प्रेम क्या है; जब मिलता है तब बढ़ता है। प्रेमी पात्र जैसे ही मिलता है वैसे ही बढ़ता जाता है। प्रेम सदा दूज का चांद है, पूर्णिमा का चांद कभी होता ही नहीं; बढ़ता ही रहता है; ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जब घटे! प्रेम सतत वर्द्धमान, सतत विकासमान है, सतत गतिमान है! कहीं ठहरता ही नहीं, प्रवाहरूप है। प्रतिक्षण बढ़ता है, विच्छेद-रहित है। विच्छेद कभी होता ही नहीं। मिलन हुआ? सदा को हुआ। मिलन हुआ? शाश्वत हुआ। जब तक मिलन नहीं हुआ! तब तक विच्छेद है, मिलन होते ही फिर कोई विच्छेद नहीं, प्रेम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, प्रेम से ज्यादा सूक्ष्म और कुछ भी नहीं, प्रेम शून्य का संगीत है..!!
ओशो

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *