हमारा सपना कैसा होना चाहिए ? by chanakya

चाणक्य एक साधारण – सी झोंपड़ी में रहते थे। उन्होंने राहत कार्य की घोषणा करवाई , अकाल से प्रभावित लोगों के पास गरम कपड़े नहीं हैं। सर्दी का मौसम है। जो संपन्न हैं , वे अपने – अपने घरों से कंबल ला कर दें। घोषणा होने की देर थी , महामात्य के झोंपड़े में कपड़ों का ढेर लग गया। चाणक्य अपने झोंपड़े में बैठे थे। सामने कंबलों का ढेर लगा था। लेकिन खुद चाणक्य ने एक फटा – पुराना कंबल ओढ़ रखा था। रात के समय वहां एक चोर घुसा , झोंपड़े में छिपा वह चाणक्य के सोने की प्रतीक्षा करने लगा। इसी बीच कोई विदेशी चाणक्य से मिलने आ पहुंचा। चाणक्य को फटे – पुराने कंबल में लिपटा देख उसने पूछा , ‘ सामने अच्छे कंबलों का ढेर लगा है , फिर आपने इसे क्यों ओढ़ रखा है ? चाणक्य ने कहा , वह जनता के लिए है , उसी के काम आएगा। मेरे लिए नहीं है। विदेशी यह सुन कर आश्चर्यचकित रह गया। लेकिन चोर को तो ऐसा सबक मिला कि उसने चोरी करनी ही छोड़ दी। जो लोग प्रशासन के हिस्से हैं , वे चाणक्य की इस कथा से कोई प्रेरणा लें , तभी हमारी स्वतंत्रता सार्थक होगी। अगर स्वतंत्रता के गीत गाते रहें और पुराने ढर्रे पर चलते रहें , तो इससे देश की नीतियों में बदलाव कैसे आएगा ? मंत्रिमंडल में जो लोग आते हैं , उनका यह नैतिक दायित्व है कि वे अपने इस्पाती चरित्र से देश को नई दिशा दें। जनता की चारित्रिक दृढ़ता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि नेतृत्व करने वाले लोगों का चरित्र उज्वल रहे। हमने अभी गणतंत्र दिवस का समारोह मनाया है। लेकिन क्या सिर्फ समारोह मनाने भर से देश सही दिशा में बढ़ सकता है ? ‘ बीती ताहि बिसारि दे , आगे की सुधि ले ‘ – जो बीत गया , उसका भार ढोने की जरूरत नहीं है। लेकिन जो बचा हुआ है , उसका उपयोग करना है। उसके लिए प्रतीक्षा करने की कोई जरूरत नहीं है। जो क्षण हाथ में है , उसी को सार्थक करना है। इसके लिए आज से , अभी से नए संकल्प के साथ काम शुरू किया जाए। जीने की इच्छा और स्वतंत्र रहने की इच्छा – ये दो मूल वृत्तियां हैं। उस दिन जनता की खुशियों का कोई पार नहीं रहा होगा , जिस दिन उसने स्वतंत्रता की पहली सांस ली। लेकिन जिस आजादी के लिए गांधी ने संघर्ष किया , जिस आजादी के लिए देश के अनेक नौजवान शहीद हो गए , भारतीय जनता को उस आजादी का सच्चा स्वाद नहीं मिला। एक आजाद राष्ट्र की जनता कैसे जीती है ? कैसे सोचती है ? और कैसे काम करती है ? इसके अनुरूप वातावरण ही नहीं बन पाया। यहां उच्च वर्ग के लोग बहुत जल्दी विलासिता में डूब गए। जिन लोगों का पुरुषार्थी मन कुछ करना चाहता था , वे अभाव और आर्थिक विपन्नताओं से अपाहिज हो गए। स्वार्थी लोग समय के चूल्हे पर अपनी रोटी सेंकने लगे। ऐसे में राष्ट्र की चिंता किसे होती ? इसके लिए दोषी किसे ठहराया जाए ? क्या उन नेताओं को , जिन्होंने लोगों का झूठे सपने दिखाए। या यहां की जनता को , जो लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप खुद को ढाल नहीं पाई। राष्ट्रवाद के स्थान पर उसके मन में व्यक्तिवाद विकसित हुआ। लेकिन किसी व्यक्ति या वर्ग पर दोष लगाने से तो कुछ होने वाला नहीं है। पर जरूरी है कि हम कुछ बातें समझ लें और खुद को भ्रम में न रखें। पहली बात यह है कि स्वप्न वैसा ही देखना चाहिए जो पूरा हो सके , जिसके अनुरूप पुरुषार्थ किया जा सके। कल्पना और आशा की अधिकता आदमी को भटका देती है ? यथार्थ के ठोस धरातल पर कदम रखने वाला ही अपनी मंजिल तक पहुंच सकता है। इसके लिए भगवान बनने की धुन छोड़ कर मनुष्य बनने का लक्ष्य सामने रखना चाहिए। मनुष्य , मनुष्य बना रहे , इसके लिए छोटी – छोटी सिर्फ तीन बातों का ध्यान रखें। हमारी दृष्टि सम्यक् रहे , अर्थार्जन का साधन शुद्ध रहे और हम अपव्यय तथा आडंबर से बचे रहें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *