रीढ़ की हड्डी के आधार पर, जहाँ से गुदा द्वार का आरंभ होता है, पहला चक्र वहीँ स्थित होता है, इस चक्र को मूलाधार चक्र कहते हैं। इसके ठीक ऊपर अगला चक्र है, यह स्वाधिस्ठान चक्र कहलाता है। नाभि के ठीक ऊपर तीसरा चक्र है, यह मणिपुर चक्र कहलाता है। छाति के मध्य चौथा चक्र अर्थात ‘अनाहत चक्र’ स्थित होता है। इसके बाद गले में विशुद्धि चक्र होता है। इसके ऊपर दोनों भौहों के मध्य छठा चक्र जिसे आज्ञा चक्र कहते है, स्थित होता है। सिर के ऊपर सातवाँ और आखिरी चक्र स्थित होता है, यह सहस्र चक्र के नाम से जाना जाता है।
वाद्ययन्त्र और चक्र
‘ड्रम’ वाद्ययन्त्र प्रथम चक्र अर्थात मूलाधार चक्र पर प्रभाव डालता है। बड़े और छोटे ड्रम का प्रभाव मूलाधार से स्वादिस्ठान (द्वितीय) चक्र के मध्य होता है। बड़े और हवा से बजने वाले वाद्य यन्त्र जैसे कि दुदुम्भी/तुरही (trumpets) हमारे दूसरे से ले कर तीसरे अर्थात स्वाधिष्ठान से मणिपुर चक्र पर प्रभाव डालते हैं। धातु की ध्वनि देने वाले वाद्य यन्त्र मणिपुर से लेकर अनाहत (चौथे) चक्र पर प्रभाव डालते हैं। जब हम धातु की ध्वनि सुनते हैं तो इससे हमारे पेट में संवेदना होती है। इस बात का अनुभव कितने लोगों ने किया है? तार वाले वाद्य यन्त्र नाभि से ह्रदय के बीच प्रभाव डालते हैं। वीणा एवं सितार जैसे तार वाले वाद्य यन्त्र अनाहत (ह्रदय) चक्र को प्रभावित करते हैं।
बांसुरी का संगीत या हवा से चलने वाले अन्य वाद्य यंत्रों की ध्वनि एवं कभी-कभी पियानो की आवाज़ अनाहत से विशुद्धि (गले में स्थित) चक्र को प्रभावित करती है। घंटी, पानी की कल-कल, चिड़ियों की चहचहाहट एवं अन्य ऐसी ही मधुर एवं सूक्ष्म ध्वनियों का प्रभाव गले से ले कर आज्ञा चक्र (दोनों भौंहों) पर पड़ता है। इसके बाद अंत में सहस्र (सिर के ऊपर) चक्र पर ध्यान (meditation) एवं एक साथ बजने वाले अन्य सभी वाद्य यंत्रों का प्रभाव पड़ता है।
मंदिर और संगीत
यदि किसी भी भारतीय रीति-रिवाज़ को देखा जाये तो पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को इस बारे में पहले से ही जानकारी थी। मंदिरों में ड्रम को बाहर की तरफ (periphery) में रखा जाता है, इसके बाद हवा से बजने वाले बड़े वाद्य यन्त्र और फिर गर्भ-गृह में घंटियां एवं शंख आदि रखे जाते हैं। अतः ध्वनि तरंगों को संतुलित रखने के लिए ड्रम से ले कर हवा से चलने वाले वाद्ययंत्रों का एवं फिर इसके बाद तार वाले वाद्ययंत्रों का, फिर एक बार पुनः हवादार वाद्य यंत्रों का, तथा इसके बाद घंटियाँ का एवं सबसे अंत में मौन का प्रयोग किया जाता है। ध्वनि का उद्देश्य मौन या निःशब्द है। क्या हम सब ये जानते हैं। ध्वनि का उद्गम निःशब्द से है और इसका लक्ष्य भी मौन ही है। मौन का सीधा सा अर्थ है सम्पूर्ण मेल या एकात्म। जब हमारे भीतर पूर्ण एकात्म रहेगा, तब ध्वनि भी एक वस्तु की भांति लगेगी, जिसमें कुछ बोझ हो। परन्तु मोक्ष का मार्ग ध्वनि एवं संगीत से हो कर ही जाता है। संगीत वह साधन है जो व्यक्ति (यष्टि) को समष्टि से जोड़ता है। हमारा सीमित मन संगीत के माध्यम से विस्तृत हो जाता है और अनुभव करता है कि यह पहले से ही उस विस्तृत चेतना या बड़े मन का ही एक अंश है।
श्री श्री रविशंकर जी (Sri Sri Ravi Shankar ji) के ज्ञान वार्ता से संकलित