परिचय | Introduction
अपने दिल को सुरक्षित रखे, यह बहुत नाजुक होता है। कुछ छोटी छोटी बातें और घटनाये इस पर गहन प्रभाव छोड़ देती है। एक बहुमूल्य पत्थर को जोड़ कर रखने के लिए सोने और चांदी की परत देनी पड़ती है। उसी तरह ज्ञान और विवेक की परत आपके दिल को दिव्यता से जोड़ कर रखती है। मन और दिल को साफ और स्वास्थ्य रखने के लिए दिव्यता से उत्तम कुछ भी नहीं है। फिर गुजरता हुआ समय और घटनाये आपको स्पर्श भी नहीं कर पायेंगी और न कोई घाव दे पाएगी।
जब कोई बहुत प्रेम अभिव्यक्त करता हैं तो अक्सर उस पर कैसे प्रतिक्रिया करना या आभार व्यक्त करना आपको समझ में नहीं आता। सच्चे प्रेम को पाने की क्षमता प्रेम को देने या बाँटने से आती है। जितना आप अधिक केंद्रित होते हे उतना अपने अनुभव के आधार पर यह समझ पाते हैं कि प्रेम सिर्फ एक भावना नहीं हैं, वह आपका शाश्वत आस्तित्व है, फिर चाहे कितना भी प्रेम किसी भी रूप में अभिव्यक्त किया जाए आप अपने आप को स्वयं में पाते है।
प्रेम के प्रकार | Types of love
प्रेम के तीन प्रकार होते है।
- प्रेम जो आकर्षण से मिलता है।
- प्रेम जो सुख सुविधा से मिलता है।
- दिव्य प्रेम।
प्रेम जो आकर्षण से मिलता हैं वह क्षणिक होता हैं क्युकी वह अनभिज्ञ या सम्मोहन की वजय से होता है। इसमें आपका आकर्षण से जल्दी ही मोह भंग हो जाता हैं और आप ऊब जाते है। यह प्रेम धीरे धीरे कम होने लगता हैं और भय, अनिश्चिता, असुरक्षा और उदासी लाता है।
जो प्रेम सुख सुविधा से मिलता हैं वह घनिष्टता लाता हैं परन्तु उसमे कोई जोश, उत्साह , या आनंद नहीं होता है। उदहारण के लिए आप एक नवीन मित्र की तुलना में अपने पुराने मित्र के साथ अधिक सुविधापूर्ण महसूस करते है क्युकी वह आपसे परिचित है। उपरोक्त दोनों को दिव्य प्रेम पीछे छोड़ देता है। यह सदाबहार नवीनतम रहता है। आप जितना इसके निकट जाएँगे उतना ही इसमें अधिक आकर्षण और गहनता आती है। इसमें कभी भी उबासी नहीं आती हैं और यह हर किसी को उत्साहित रखता है।
सांसारिक प्रेम सागर के जैसा हैं, परन्तु सागर की भी सतह होती है। दिव्य प्रेम आकाश के जैसा हैं जिसकी कोई सीमा नहीं है। सागर की सतह से आकाश के ओर की ऊँची उड़ान को भरे। प्राचीन प्रेम इन सभी संबंधो से परे हैं और इसमें सभी सम्बन्ध सम्मलित होते है।
प्रेम इतना उलझा हुआ क्यो है? | Why Love is Complicated in Hindi
गुरुदेव: क्यों कि लोगोंको यह पता ही नहींकी प्रेम को कैसे स्वीकार किया जाये। कोई आपके पास आकर कहने लगता है, मै आपको बहुत बहुत प्यार करता/करती हूँ। और थोडीही देर में आप अपने कान बंद करना चाहते है और कहने लगते हैं, ‘बस करो, मेरे लिये यह सब बहुत भारी हो रहा है, मैं इससे भागना चाहता हूँ। बात तो यह है कि वह व्यक्ति प्यार में भी घुटन महसूस करने लगता है। यह इसलिये कि हम अपने खुद की गहराई में कभी उतरे ही नहीं। हमने कभी महसूस भी नही किया कि हम कौन हैं। हमें यह पता ही नहीं कि हम ऐसी एक चीज से बने हुए है, जिसका नाम प्रेम है। जब हम अपने खुद के साथ जुडे हुए नहीं हैं, तो फिर दुसरे के साथ जुड पाना इतना स्वाभाविक नही हो पाता। और इसीलिये दुसरा कोई आपसे जुडना चाहे तो आप इतने बेचैन हो जाते हैं। क्योंकि आप तो महसूस करते हो कि आप खुद के साथ ही नही मिल पाये हो। इसीलिये प्यार को कैसे स्वीकार किया जाये यह आप समझ नही पाते।
एक पुरानी कहावत है, “सुअर के सामने मोती मत डालीये।” आप पहले प्रेम के प्रती आदरभाव रखना सीखें। और अगला व्यक्ति प्रेम को सम्मान ना देता हो, तो उसे प्रेम बताने कि कोशिश ना करें। आपके पास प्रेम देने की भी कुशलता होनी चाहिये। प्रेम देने का कौशल याने प्यार में डूब जाना। केवल कोशिश करना नहीं। प्रेम यह कोई कार्य नही है, वह तो आपके मन की अवस्था है। आपको उसमें बिना कोई शर्त के रहना है। देखिये, मै यहॉ आपके लिये बिना कोई शर्त के उपस्थित हूँ। अब यहाँ आकर उसका स्वीकार करना आप पर ही निर्भर है। आपकी अंदरकी ताकत की वजहसे लोग आपको बेहतर समझ सकते हैं। उसी तरह आप किसी को बेहद प्यार करते हो यह उन्हें समझाने कि जबरदस्ती नहीं कर सकते। यह सब हो पाने के लिये आपको थोडा समय जाने देना होगा। आपको पता ही है ऐसे मामले में जबरदस्ती करने से और बाकी समस्यायें खडी हो सकती है।
पहली नज़र में प्रेम | Love at first sight
अक्सर लोग पहली नज़र में प्रेम को अनुभव करते है। फिर जैसे समय गुजरता है , यह कम और दूषित हो जाता हैं और घृणा में परिवर्तित होकर गायब हो जाता है। जब वही प्रेम वृक्ष बन जाता हैं जिसमे ज्ञान की खाद डाली गई हो तो वह प्राचीन प्रेम का रूप लेकर जन्म जन्मांतर साथ रहता है। वह हमारी स्वयं की चेतना है। आप इस वर्तमान शरीर,नाम, स्वरूप और संबंधो से सीमित नहीं है। आपको अपना अतीत और प्राचीनता पता न हो लेकिन बस इतना जान ले कि आप प्राचीन हैं , यह भी पर्याप्त है।
जब प्रेम को चोट लगती हैं तो वह क्रोध बन जाता हैं, जब वह विक्षोभ होता हैं तो वह ईर्ष्या बन जाता हैं , जब उसका प्रवाह होता हैं तो वह करुणा हैं और जब वह प्रज्वलित होता हैं तो वह परमान्द बन जाता हैं।