प्रेम, एक ऐसा लफ्ज जो हमारे चारों ओर अक्सर सुनाई देता है, लेकिन विडंबना देखिए कि लोगों के मनों में जितना इसे खोजने जाएंगे, उतनी ही निराशा हाथ लगेगी। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि हमारे तथाकथित धर्म-गुरुओं और पथ-प्रदर्शकों ने उस चीज को पर्दे से बाहर ही नहीं आने दिया, जो प्रेम का प्राथमिक बिंदु है। हो सकता है, यह सुनकर ऐसे लोगों की भौंहें तन जाएं, लेकिन ओशो ने अपनी किताब ‘संभोग से समाधि की ओर’ के पहले भाग में बड़ी बेबाकी से इस तथ्य को स्थापित करने की कोशिश की है कि प्रेम का प्राथमिक बिंदु सेक्स ही है और जो लोग सेक्स को घृणा के नजरिए से देखते हैं, वे कभी प्रेम कर ही नहीं सकते। ओशो मानते हैं कि संभोग और समाधि के बीच एक सेतु है, एक यात्रा है, एक मार्ग है। समाधि जिसका अंतिम छोर है और संभोग उस सीढ़ी का पहला सोपान है, पहला पाया है।
युवक और योनि व क्रांति सूत्र, किताब के दूसरे अहम हिस्से हैं। जनसंख्या विस्फोट, युवक, विद्रोह, प्रेम विवाह जैसे मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करने के बाद किताब के अंतिम हिस्से क्रांतिसूत्र में ओशो ने किसी भी तरह के वाद, पब्लिक ओपिनियन और दमन से मुक्ति की जोरदार वकालत की है। किताब में कई ऐसे दिलचस्प उद्धहरण हैं जो प्रैक्टिकल भले ही न हों, लेकिन प्रैक्टिकेबल जरूर मालूम देते हैं। मसलन कहीं ओशो अपोजिट सेक्स के बच्चों को ज्यादा-से-ज्यादा नग्न रखने की सलाह देते हैं, तो कहीं हर नगर में खजुराहो जैसी नग्न प्रतिमाओं के होने की वकालत करते हैं। कभी उन्हें मां और बेटे के बीच आध्यात्मिक सेक्स की मौजूदगी नजर आती है तो कभी वह प्रेम को उस तल पर ले जाने की बात करते हैं, जहां पति को पत्नी में मां नजर आने लगे और पत्नी को पति में बच्चा।
गौरतलब है कि यह किताब ओशो द्वारा लिखित नहीं है, बल्कि उनके प्रवचनों की रेकॉर्डिंग को ही किताब का रूप दे दिया गया है। सत्य की खोज से लेकर तमाम सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर ओशो के क्रांतिकारी विचार उन्हें दूसरे तमाम विचारकों से अलग खड़ा करते हैं और ऐसा ही कुछ इस किताब में भी साफ नजर आता है। अपने इन्हीं तेवरों के चलते ओशो इस किताब में संभोग के उस मर्म को खुलकर बयां कर पाए जिसमें इंसान को समाधि की ओर ले जाने की ताकत है, मुक्ति की ओर ले जाने का जज्बा है और मोक्ष का अहसास करा पाने की क्षमता है।