धर्म मनुष्य को जड़ बनाता है पर अध्यात्म…

धर्म व्रत का आग्रह करते हैं, लेकिन ताओ कहते हैं कि होश पर जोर होना चाहिए। यदि हम धर्मों का पालन करें तो भोजन का आनंद नहीं ले सकते और ऐसी स्थिति में पूर्ति के लिए आदमी अधिक खाता है। लेकिन अगर हम स्वाद का मजा लेना सीखें तो भोजन भी आनंददायी बन जाएगा। तब हम कम खाएंगे क्योंकि अधिक खाने की आवश्यकता न रही। धीरे-धीरे, हर ग्रास का स्वाद लेकर खाएंगे और इस तरह खाना ही ध्यान बन जाएगा। अध्यात्म न तो स्वाद के विरुद्ध है और न ही इंद्रियों के। संवेदनशील होने का अर्थ है- जीवंत होना और प्रज्ञावान होना। लेकिन धर्म हमें जड़ कर देते हैं क्योंकि वे स्वाद के विरुद्ध हैं। धर्म चाहता है कि हमारी जिह्वा संवेदनहीन हो जाए। अध्यात्म स्वाद के पक्ष में है।हमें इंद्रियों की संवेदनशीलता का उपयोग करना आना चाहिए। अध्यात्म शरीर को मंदिर मानता है। इतने संवेदनशील, सुंदर और अद्भुत शरीर को जड़ करना परमात्मा का अपमान है। स्वाद का यंत्र परमात्मा ने ही हमें दिया है, यह हमारी ईजाद नहीं है। परमात्मा का दिया जो कुछ भी है, जितनी भी इंद्रियां हैं, उनमें एक तरह की लयबद्धता है। जापान की झेन परंपरा में लोगों ने चाय पीने को भी एक ध्यान बना लिया है। सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि हमारा दृष्टिकोण क्या है। हम चाय भी ध्यानपूर्वक, एक-एक घूंट का स्वाद लेते हुए पी सकते हैं। इसकी सुगंध ले सकते हैं, इसे जी सकते हैं। तब चाय पीने की वह घड़ी प्रार्थना का क्षण होगी, चाय पीना एक दिव्य कार्य होगा। धार्मिकता में जीने का अर्थ गंभीर होकर जीना नहीं है, बल्कि होशपूर्वक जीना है। परमात्मा का अपना स्वाद है। परंतु इसे अनुभव करने के लिए हमें अपनी संवेदनशीलता बढ़ानी होगी। उत्तेजना की इच्छा संवेदनशीलता को मार देती है। जब हम अधिक की मांग करते हैं तो हम अपनी इंद्रियों को मार डालते हैं। उत्तेजनाओं से दूर रहकर ही इंद्रियां शुद्ध हो सकती हैं। जिह्वारूपी जो इंद्रिय है, उसकी शुद्धि इस भाव से होती है कि जो कुछ भी आप खाते हैं, पहले उसकी सुगंध लें। सारा अस्तित्व दिव्य सुगंध से भरा हुआ है। सुगंध का अनुभव आपको सूक्ष्म बनाता है क्योंकि वह शांत और अनुत्तेजक होता है। जिस प्रकार फूल अपनी सुगंध बिखेरते हैं, वैसे ही हमारी आंतरिक गहराई दिव्य सुगंध से भरपूर है। अन्न की शीतलता या गर्माहट को कुछ क्षण के लिए महसूस करें और फिर उसे प्रार्थनापूर्वक इस भाव से ग्रहण करें कि शीघ्र ही वह आपकी अस्थि-रक्त-मज्जा में दौड़ेगा। धीरे-धीरे आपको अपने होने में भी दिव्यता का अनुभव होने लगेगा। आप पाएंगे कि इस स्वाद और सुगंध की दिव्यता का संबंध अस्तित्व से है। यह अस्तित्व भी एक गुण की ही तरह है जो हमारे हृदय में केंद्रित है। यही हमारा होना है। यही हमारी चेतना है।”

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