ओशोक्रोध को भी दूसरे पर निकालने की जरूरत नहीं है। क्रोध को भी ध्यान में निकाला जा सकता है। दुख को भी दूसरे पर निकालने की जरूरत नहीं है। दुख को भी ध्यान में निकाला जा सकता है। अकेले ही निकाला जा सकता है। क्रोध मेरा है तो दूसरे की जरूरत क्या है?अकेला ही निकल सकता है। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं: काम भी, क्रोध भी, मोह भी, सब, जो भी हमारे भीतर है, हम उसे अगर दूसरे पर न निकालें और ध्यान में निकालें तो एक रूपांतरण होगा। किसी दूसरे पर क्रोध निकालेंगे तो उपद्रव होगा। गाली देंगे तो गाली लौटेगी। फिर दूसरा भी तो क्रोध निकालेगा। फिर इसका अंत कहां होगा? इसलिए जिन लोगों ने समाज का ध्यान रखा उन्होंने सबको समझा दिया कि क्रोध मत निकालो, क्रोध अपने भीतर पी जाओ। तो उन्होंने समाज को तो बचा लिया, दूसरे को तो बचा लिया, लेकिन आप फंस गए। मैं आप पर क्रोध न करूं तो आप तो बच गए, लेकिन मेरा क्या होगा? मैं तो क्रोध से भरा हूं भीतर। यह क्रोध कहां निकलेगा?यह मेरे ही व्यक्तित्व को रुग्ण और बीमार और परेशान करेगा। …और अगर इस तरह के बहुत से रोग इकट्ठे हो जाएं तो मैं पागल होजाऊंगा। इसलिए जितनी सभ्यता बढ़ती है उतना पागलपन बढ़ता है, क्योंकि जितनी सभ्यता बढ़ती है उतने हम उन सब चीजों को रोकते चले जाते हैं. जो असभ्य आदमी सहज ही कर लेता है। फिर वे इकट्ठी हो जाती हैं, फिर उनका फूटना शुरू होता है। नहीं, मैं एक दूसरी ही बात कह रहा हूं।मैं कह रहा हूं: न तो दूसरे पर निकालें, न अपने में भरें, निकल जाने दें। यह बिल्कुल और बात है। यह जो ध्यान का हमारा प्रयोग है, इसमें निकल जाने का दूसरा चरण है। उस दूसरे चरण में जो भी निकलना है उसे निकल जाने दें। रोना है, हंसना है, चिल्लाना है, जो भी आग आपके भीतर है उसे बाहर गिर जाने दें। किसी पर नहीं फेंक रहे हैं उसे हम, कूड़ाघर में कर्कट में फेंक रहे हैं। किसी से कोई संबंध नहीं है, हमारे भीतर भरा है, हम उसे बाहर निकाल रहे हैं।अगर कोई व्यक्ति रोज इस प्रयोग को चालीस मिनट करता रहे, तो तीन महीने के भीतर ही क्रोध करने में असमर्थ हो जाएगा। सच में असमर्थ हो जाएगा, दबाना नहीं पड़ेगा, हंसी आने लगेगी।