धार्मिक का अर्थ है समर्पित व्यक्ति। जीवन जहां ले जाए, उसकी अपनी कोई मर्जी नहीं होती। अगर जीवन दुर्योधन के पक्ष में खड़ा कर दे तो वह वहीं खड़ा हो जाएगा। अगर जीवन अर्जुन के पक्ष में खड़ा कर दे तो वह वहीं खड़ा हो जाएगा। वह तो निमित्त-मात्र है। उसने अपनी तरफ से निर्णय लेना छोड़ दिया है। वह समर्पित है। इसलिए भीष्म ने स्वयं को जहां पाया, उसे स्वीकार कर लिया। इस स्वीकृति को, जो बड़ी कठिन है, थोड़ा समझें।
अगर भीष्म ने पांडवों के पक्ष में अपने को पाया होता तो स्वीकृति ज्यादा सरल थी, समर्पण ज्यादा आसान था। स्वर्ग में अपने को पाकर कौन समर्पण न कर देगा! नरक में खुद को पाकर जो समर्पण करे, वही समर्पण है।
जहां जीत होने को ही हो, और यह तो स्पष्ट ही था कि पांडवों की जीत सुनिश्चित है, फिर भी भीष्म ने स्वयं को दुर्योधन के साथ छोड़ दिया। इसलिए, गुण-गौरव और भी बढ़ जाता है। भीष्म ने अपने को ऐसी विपरीत दशा में छोड़ दिया, जहां समर्पण असंभव है।
यही कारण है कि कृष्ण ने पांडवों को अंतत: भीष्म के पास धर्म की शिक्षा के लिए भेजा, क्योंकि जिसका समर्पण इतना गहरा है कि परमात्मा के भी विपरीत लड़ना हो तो वहां भी इनकार न करेगा, वह उसके अंतिम क्षणों में उसके चरणों में बैठ कर शिक्षा लेने योग्य है। बड़ा कठिन था दुर्योधन के साथ खड़ा होना। साधारण बुद्धि के व्यक्ति के लिए असंभव। वहां या तो भीष्म जैसे लोग खड़े थे, जिनका समर्पण पूरा था या वैसे, जिनकी दुष्टता पूरी थी। इस महासमर्पण के कारण ही यह गरिमा कृष्ण ने उन्हें दी।
तुम अगर होते तो कहते जिसको धर्म की इतनी भी बुद्धि नहीं है कि असत्य को छोड़ो, सत्य को पकड़ो; उसके पास धर्म सीखने जाना? लेकिन कृष्ण ने भेजा, पांडव गए। वे समझे इस राज को कि भीष्म वहां अपनी मर्जी से नहीं हैं, वे परमात्मा की मर्जी से हैं। जिसने इस तरफ लोगों को खड़ा किया है, उसी ने उस तरफ भी लोगों को खड़ा किया है। हाथ उसका है, वह जहां उठाए, जैसे चलाए। जो उसके साथ पूरी तरह चलने को राजी है, जिसने अपने अहंकार को बिल्कुल छोड़ा है, वही धर्म के गूढ़ राज को जानने में समर्थ होता है।
कृष्ण ने कहा कि मरने के पहले पूछ लो उससे। यह अवसर न खो जाए, क्योंकि जो नासमझ उसके आस-पास खड़े हैं, वे तो उससे पूछेंगे भी नहीं। इसलिए जाओ, इसके पहले कि यह जीवन-ज्योति खो जाए, उनसे जीवन का निचोड़ पूछ लो। पूछ लो, धर्म क्या है! उसने धर्म को बड़ी विपरीत अवस्थाओं में जाना है। और जिसने जाना है अंधकार में प्रकाश को, उसकी पहचान बड़ी गहरी होती है। जिसने ज्योति को अंधेरे की पृष्ठभूमि में देखा है, उसके पास दृष्टि है। इसलिए, भीष्म के पास भेजा है।
सवाल उठेगा कि आखिर परमात्मा की भी ऐसी मर्जी क्यों? क्यों समग्र की ऐसी आकांक्षा हो कि भीष्म और कर्ण जैसे महिमाशाली, पवित्र, जिनकी शुचिता का कोई अंत नहीं, ऐसे लोग, वे दुष्टों के गिरोह में खड़े हो जाएं? कारण समझने जैसा है।
इस संसार में बुराई भी भलाई के पैरों पर ही खड़ी हो सकती है, अन्यथा नहीं। पाप के पास अपनी कोई शक्ति ही नहीं है कि वह खड़ा हो जाए, उसको भी पुण्य का सहारा चाहिए। तो वहां रावण के खेमे में कोई है, जो राम को प्रेम करता है। रावण के खेमे में कुछ सत्य की किरण है, नहीं तो रावण का खेमा ही गिर जाए।
दुर्योधन के खेमे में कोई है कि अगर उसके प्राणों से पूछा जाए तो वह कहेगा, पांडव जीत जाएं। लेकिन, वह विपरीत खेमे में खड़ा है। वहां अर्जुन के गुरु द्रोण हैं, कर्ण जैसा महारथी है, भीष्म जैसा अनूठा पुरुष है, अन्यथा पलड़ा पहले ही गिर जाएगा। युद्ध हो ही न पाएगा।
तुम कहोगे, अगर सत्य के उधार पैर लेकर लड़ना पड़ता है तो झूठ को लड़ाने की जरूरत ही क्या है? यही जीवन की एक बड़ी गहरी बात है। अगर झूठ न लड़े तो सत्य कभी जीतेगा भी नहीं। झूठ को लड़ाना भी होगा, सत्य को जिताना भी होगा। झूठ के पार होकर ही सत्य निखरेगा। अंधेरी रात के बाद ही सुबह होगी। तो परमात्मा झूठ को भी सच के सहारे देता है। इससे झूठ और सच का संघर्ष हो पाता है। उस संघर्ष में सत्य ही सदा जीतता है। यह संघर्ष एक अनिवार्य शिक्षण है। वह सत्य के विपरीत नहीं है, वस्तुत: सत्य को प्रकट होने का अवसर है।