बढ़ती उम्र के साथ आपका भौतिक-शरीर बूढ़ा होता जाएगा। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि आपका ऊर्जा-शरीर भी बूढ़ा हो- आप इसे वैसा ही रख सकते हैं, जैसा यह पैदा होने के समय था।
समस्या जीवन के साथ नहीं है। समस्या यह है कि आपने अपने मन की बागडोर अपने हाथ में नहीं ली है।
एक आध्यात्मिक साधक के तौर पर, आप एक नाविक की तरह हैं, जो अपने ही भीतर हमेशा एक नई जगह जाना चाहता है।
नियंत्रित करने का मतलब है किसी चीज को कुछ खास सीमाओं में बांधना। अपने मन को नियंत्रित मत कीजिए – इसे आजाद कीजिए।
एक दीपक की लौ चेतना या मुक्ति की प्रतीक है। हमें 7 अरब दीपकों की जरुरत है – एक दीपक दुनिया के हर व्यक्ति के लिए।
अगर आप यह आंकना बंद कर दें कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं, और हर चीज पर पूरा ध्यान देने लगें, तो सृष्टि का हर द्वार आपके लिए खुल जाएगा।
गंभीरता वास्तव में खुद को अहमियत देने से आती है।
आपको अपनी चेतना को ऊंचा नहीं उठाना है – आपको स्वयं को ऊंचा उठाना है ताकि आपकी पहुंच अपनी चेतना तक हो सके।
अगर आप अपने भीतर आनन्द का रसायन पैदा कर लेते हैं, तो कोई भी काम – जो आपको दुनिया में करने की जरूरत है – आप पर एक खरोंच भी नहीं छोड़ेगा।
मन समाज का कूड़ेदान है। हर कोई जो इसके पास से गुजरता है, इसमें कुछ न कुछ डाल देता है।
जो सुन नहीं सकता, वह कभी सीख नहीं सकता। सुनना सिर्फ अपने कानों से ही नहीं है, बल्कि अपने शरीर, सांस और वजूद से भी।
धर्मों का अस्तित्व सिर्फ इसलिए है, क्योंकि लोग सृष्टिकर्ता को अपने भीतर अनुभव नहीं करते। वरना कौन यह विश्वास करेगा कि ईश्वर स्वर्ग में बैठा है।
मन अतीत का संग्रह है। एक बार जब आप मन के परे चले जाते हैं, अतीत का आप के ऊपर कोई असर नहीं होता।
कृपा ऊपर से नहीं बरसती – कृपा तो हमेशा है। आपको बस खुद को इसके प्रति ग्रहणशील बनाना है।
बाहरी चीजें आपको प्रेरणा और मार्गदर्शन दे सकती हैं, लेकिन आत्म-ज्ञान हमेशा भीतर ही घटित होता है।