“एक दिन सिद्धार्थ ने अपने सारथी छंदक को नगर भ्रमण के लिए चलने को कहा, छंदक ने तुरंत राजकुमार के प्रिय घोडे कंथक को तैयार किया। उस पर राजकुमार को सवार कराकर वह नगर-भ्रमण के लिए चल पडा।
राजा शुद्धोधन ने ऐसा प्रंबध कराया था कि राजकुमार को मार्ग में केाई करूणाजनक दृष्य दिखाई न दे, ताकि उसके मन में विरक्ति की भावना उत्पन्न न हो। जिस मार्ग से उन्हें जाना था, उसे स्वच्छ करके सजाया गया था। उस मार्ग पर दोनों ओर सुन्दर-सुन्दर लडके-लडकियां खडे थे। जब सिद्धार्थ उनके पास से गुजरते तो वे उन पर फूल बरसाते।
कहीं दुख या कष्ट का नाम भी दिखाई नही दे रहा था। राजकुमार सिद्धार्थ भी उस समय प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। एका-एक उनकी दृष्टि कहीं दूर उठ गई। एक झुकी हुई कमर वाला वृद्ध व्यक्ति उन्हीं की ओर चला आ रहा था। उसका मूंह झुर्रियों से भरा हुआ था आंखे अन्दर को धंसी हुइ थी। हाथ-पैर कांप रहे थे। वह लाठी का सहारा लेकर बडी मुश्किल से चल पा रहा था।
जरा उधर देखों छंदक सिद्धार्थ ने उस वृद्ध की ओर संकेत करते हुए कहा- उस आदमी की ओर जिसकी कमर झुकी हुई है। मुझे बताओं की उसे क्या हो गया है ? वह इतना असुंदर क्यों है ? वह ठीक से चल क्यो नही पा रहा ?
राजकुमार! छंदक ने उत्तर दिया – वह व्यक्ति बुढा हो गया है। उसकी आयु अधिक हो गयी है। अधिक आयु हो जाने पर व्यक्ति ऐसा ही हो जाता है।
तो क्या आयु अधिक हो जाने पर मैं और यशोधरा भी ऐसे ही हो जायेंगे ? सिद्धार्थ ने चिंतित स्वर में पूछा- हम भी बुढे हो जायेंगे ? हम भी असुंदर हो जायेंगे ? हम भी ठीक से नहीं चल पायेंगे ?
सच यही हैं राजकुमार! छंदक ने उत्तर दिया – ऐसा सभी के साथ होता है। बुढा हो जाने पर मनुष्य की यही दषा होती है। शरीर इसी प्रकार कमजोर और असुंदर हो जाता है।
सिद्धार्थ की सारी प्रसन्नता छू मन्तर हो गयी। उन्होंने छंदक को महल लौट चलने की आज्ञा दी। जब सिद्धार्थ अपने महल पहूंचे
“एक बार गौतम बुद्ध किसी गाँव से गुजर रहे थे। उस गाँव के लोगों को गौतम बुद्ध के बारे में गलत धारणा थी जिस कारण वे बुद्ध को अपना दुश्मन मानते थे। जब गौतम बुद्ध गाँव में आये तो गाँव वालों ने बुद्ध को भला बुरा कहा और बदुआएं देने लगे।
गौतम बुद्ध गाँव वालों की बातें शांति से सुनते रहे और जब गाँव वाले बोलते बोलते थक गए तो बुद्ध ने कहा – ‘अगर आप सभी की बातें समाप्त हो गयी हो तो मैं प्रस्थान करूँ।’
बुद्ध की बात सुनकर गाँव वालों को आश्चर्य हुआ।
उनमें से एक व्यक्ति ने कहा – ‘हमने तुम्हारी तारीफ नहीं की है। हम तुम्हे बदुआएं दे रहे है। क्या तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता?’
बुद्ध ने कहा – ‘जाओ मैं आपकी गालियाँ नहीं लेता। आपके द्वारा गालियाँ देने से क्या होता है, जब तक मैं गालियाँ स्वीकार नहीं करता इसका कोई परिणाम नहीं होगा। कुछ दिन पहले एक व्यक्ति ने मुझे कुछ उपहार दिया था लेकिन मैंने उस उपहार को लेने से मना कर दिया तो वह व्यक्ति उपहार को वापस ले गया। जब मैं लूंगा ही नहीं तो कोई मुझे कैसे दे पाएगा।’
बुद्ध ने बड़ी विनम्रता से पूछा – ‘अगर मैंने उपहार नहीं लिया तो उपहार देने वाले व्यक्ति ने क्या किया होगा।’
भीड़ में से किसी ने कहा – ‘उस उपहार को व्यक्ति ने अपने पास रख दिया होगा।’
बुद्ध ने कहा – ‘मुझे आप सब पर बड़ी दया आती है क्योंकि मैं आपकी इन गालियों को लेने में असमर्थ हूँ और इसलिए आपकी यह गालियाँ आपके पास ही रह गयी है।'”